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1 May 2018 · 2 min read

श्रमिक

श्रम‌दिवस पर विशेष
(वर्ष १९८४ में सृजित एक रचना)
-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-
श्रमिक
********
सिसक रहा संसार श्रमिक का
तुम उसकी तकदीर जगा दो
उठो राम !
इस पूँजीवादी रावण में अब आग लगा दो ।
*
निश्चय ही कुछ गलत नीतियाँ पनप रही हैं
अर्थ व्यवस्था पर अजगर की सी जकड़न है
लोग केंचुए जैसे रेंग रहे धरती पर
लगता नहीं कि इनके दिल में भी धड़कन है
और जौंक से संस्कार चिपके हैं तन पर
बैठे हैं कुछ लोग कुंडली मारे धन पर
बहुत विषैली फुफकारें और दंश सहा है
सूख चुका है माँस मात्र कंकाल बचा है
तोड़ो दाँत तक्षकों के जबड़ों के अब तो
जर्जर मानवता के मन में
नवजीवन की आस जगा दो
उठो राम !
इस पूँजीवादी रावण में अब आग लगा दो ।
*
विषधर पीता दूध वमन विष ही करता है
अवसर पाकर जी भर दंश दिया करता है
रोज रोज के दंशों ने जो नशा दिया है
श्रम को उन दंशों का आदी बना दिया है
और भाग्य की बात बता कर श्रम रोता है
ठठरी के आँचल में जा छुपकर सोता है
चिमनी से बन धुँआ मांस तन का उड़ जाता
खून धमनियों में जल कर काला पड़ जाता
और टकों में बिक जाता है गरम पसीना
खुके आम डल रही डकैती
कुछ पैने प्रतिबंध लगा दो
उठो राम‌!
इस पूँजीवादी रावण को अब आग लगा दो ।
*
जिस दिन अँगड़ाई लेकर श्रम जाग उठेगा
उस माँगेगी हिसाब हर बूँद खून की
आहों का हिसाब करना आसान नहीं‌ है
आहों का हिसाब बनती है क्रांति खून‌ की
थैली शाहों को इतना समझा दो भाई
थैली अपने साथ करोड़ों आहें लाई
बंद तिजोरी में आहें बारूद बनेंगी
सुलगेंगी, दहकेंगी और विस्फोट करेंगी
अच्छा होगा यही कि ढह जाने से पहले
खोलो बंद तिजोरी के पट
कैदी आहें दूर भगा दो
उठो राम !
इस पूँजीवादी रावण में अब आग लगा दो ।
*
जिन हाथों ने थामे हँसिया और हथौड़े
जिनके है शृंगार खुरपिया और फावड़े
बंदूकों के बट जिनके काँधे सजते हैं
जिनकी उँगली हाथ मशीनों से कटते हैं
जो बाॅयलर के तेज ताप से जूझा करते
निशिदिन जिनके हाथ कलम की पूजा करते
इन मेहनतकश में ही राम छिपे होते हैं
मुफ्तखोर साधू भगवान नहीं होते हैं
अवसर रहते पहचानो श्रम के महत्व को
श्रम पूजा है पूर्ण ब्रह्म की
श्रम की घर-घर ज्योति जगा दो
उठो राम !
इस पूँजीवादी रावण में‌ अब आग लगा दो ।
*****
-महेश जैन ‘ज्योति’
***
(सृजन वर्ष-१९८४)

Language: Hindi
256 Views
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