वो खिड़की जहां से देखा तूने एक बार
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वो खिड़की जहां से देखा था तूने पहली बार
नज़रों से मिली नज़रे दिल धड़का पहली बार
बैचेन हो जाते है जिस दिन नज़र ना आये
एक झलक मिले तो उठी सोकर बहार
जाने क्या हुआ जों अब बंद ही रहती है
आखिर कब खुलेगी करता हूँ इन्तजार
दिन पर दिन बीते एक बरस हो गया है
पतझड़ ने दी दस्तक विदा हो रही बहार
हुआ क्या है आखिर जों बंद ही है खिड़की
खुल नहीं रही क्यों करते है हम विचार
हुआ एक दिन यूँ खिड़की खुली हुई थी
जुल्फों को संवारती वो नैनो से किये वार
इशारों से पूछा हमने इतने दिन कहाँ थे
बिना तुमको देखे सूना लगता था संसार
जब गए उनके घर दरवाजे पे था ताला
लगा जैसे रहता नहीं कोई भी परिवार
फिर थी कौन वो जों मुझको दिखाई देती
सच है या सपना है या कोई चमत्कार
©ठाकुर प्रतापसिंह राणाजी
सनावद (मध्यप्रदेश )