लहू जिगर से बहा फिर
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लहू जिगर से बहा फिर किसी की यादों का
इन्हें बुझा दो अभी काम क्या चराग़ों का
सज़ा-ए-हिज्र से बढ़कर सज़ा नहीं कोई
मुझे पता तो चले कुछ मेरे गुनाहों का
सिवाय सब्र के हम और कर भी क्या सकते
कभी तो वक़्त ये बदलेगा हम अभागों का
अजीब दौर से गुज़री है ज़िन्दगी मेरी
कोई इलाज नहीं है मेरी कराहों का
मैं क्यों न देख सका आईनों में क़द अपना
कुसूर कम तो नहीं है मेरी निगाहों का
— शिवकुमार बिलगरामी
— Shivkumar Bilagrami