बचपन बेटी रूप में
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बचपन बेटी रूप में,जब से आया द्वार।
उसकी मंजुल मृदुल छवि,जीवन का शृंगार।।
एक सुनापन था हृदय,हुआ स्वतः आबाद।
विजय लालिमा गर्व से,छलक रहा अह्लाद।।
मिला खोजती थी जिसे,प्रवर रत्न अनमोल।
कानों में घुलने लगी, उसकी मीठी बोल।।
पुलक रहे थे अंग सब,उर अतुलित आनंद।
बचपन फिर से गोद में,खेल रहा स्वच्छंद।।
गूंज उठा घर आँगना,किलकारी किल्लोल।
सुरभित ये वातावरण, इत्र रही है घोल।।
सुखमय ये पावन दिवस,सदा रहेगा खास ।
मिली मुझे नव जिन्दगी ,एक नवल अहसास।।
-लक्ष्मी सिंह
नई दिल्ली