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2 Oct 2022 · 1 min read

::: प्यासी निगाहें :::

241. “प्यासी निगाहें”
(वीरवार, 01 नवम्बर 2007)
——————————–

मंद चिरागों का ये आलम
झुलसे हैं परवाने क्यों।
प्यासी है क्यूं फिर से निगाहें
छलके नहीं पैमाने क्यों।।
बादल बड़ा है पानी जरा-सा |
सूख हैं जंगल मरु हरा-सा।।
जाने कैसी है ये हकीकत।
रूठा -रूठा लगता है खत।।
खुद को ही पहचाने ना
दुनिया में अंजाने क्यों ।
प्यासी है क्यूं फिर से निगाहें
छलके नहीं पैमाने क्यों।।
उजला सूरज छिप-छिप जाए।
मन तरसे अकुलाए घबराए ।।
चंद्रमा का शीतल प्रकाश ।
तनिक भी अब आए ना रास ।।
हवा के ठण्डे झोंके से
सहम गए आशियाने क्यों।
प्यासी है क्यूं फिर से निगाहें
छलकें नहीं पैमाने क्यों ।।

-सुनील सैनी “सीना”
राम नगर, रोहतक रोड़, जीन्द (हरियाणा)-१२६१०२.

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