::: प्यासी निगाहें :::
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241. “प्यासी निगाहें”
(वीरवार, 01 नवम्बर 2007)
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मंद चिरागों का ये आलम
झुलसे हैं परवाने क्यों।
प्यासी है क्यूं फिर से निगाहें
छलके नहीं पैमाने क्यों।।
बादल बड़ा है पानी जरा-सा |
सूख हैं जंगल मरु हरा-सा।।
जाने कैसी है ये हकीकत।
रूठा -रूठा लगता है खत।।
खुद को ही पहचाने ना
दुनिया में अंजाने क्यों ।
प्यासी है क्यूं फिर से निगाहें
छलके नहीं पैमाने क्यों।।
उजला सूरज छिप-छिप जाए।
मन तरसे अकुलाए घबराए ।।
चंद्रमा का शीतल प्रकाश ।
तनिक भी अब आए ना रास ।।
हवा के ठण्डे झोंके से
सहम गए आशियाने क्यों।
प्यासी है क्यूं फिर से निगाहें
छलकें नहीं पैमाने क्यों ।।
-सुनील सैनी “सीना”
राम नगर, रोहतक रोड़, जीन्द (हरियाणा)-१२६१०२.