धर्म या धंधा
धर्म या धंधा
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धर्म के नाम ये लड़ाई आखिर मजा क्या है।
मानवता करें शर्मसार बोलो सजा क्या है।
मत पूछ बुरा हाल इस इस जमाने का।
खुद को माने ये भगवान फिर खुदा क्या है।
कही गेरूए का राज कहीं है टोपी जालीदार।
खुद को मानें रहबर आज इनको हुआ क्या है।
इनके भरे हुए भंडार कही पे भूखा है इंसान-
प्रभु यहीं तेरा जो न्याय फिर खता क्या है।
ये धर्म के ठेकेदार बने है जुर्म के पहरेदार-
मानवता क्षुब्ध करे चित्कार दवा क्या है।
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✍✍पं.संजीव शुक्ल “सचिन”
मुसहरवा (मंशानगर)
पश्चिमी चम्पारण
बिहार