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29 Sep 2022 · 1 min read

तुझे मतलूब थी वो रातें कभी

दीवारों के कान निकले थे
वो सब सुन लिया था, मेरे इश्क के बातें कभी
तुझे दिल के उजाला में पाए न
तुझे मतलूब थी वो रातें कभी

मेरी निगाहें कितनी रेत में थी
फासले राहों से कम लगता था
जागी न तू कभी मेरे ख्यालों में
मैं तन्हा आफताब लगता था

जोरों से अफ़वाए थी
तेरे और मेरे दर्मियाँ
मैं क्या करता, इस तनहाई के सफ़र में
जो होती गई दूरियाँ

मैं लिपटे रहे अंधेरों के साथ
तेरी रोशनी के पैर नहीं थे
तुम मिल न सकें अपने मकानों से आकर
क्योंकि कोई ग़ैर नहीं थे।

कैसे शरार बनी मेरी राते
पता भी नहीं चला, बुझाओगे क्या?
मैं तड़पता रहा दर्द के मारे
उसको ठंडक तुम पहुँचाओगे क्या?

मैं गया था कभी तेरी चौखट पे
तुझसे ही मिलने , पर कोई जवाब न पाया
तुझे मतलूब थी वो रातें कभी
जो मुझमें तू न कभी हो पाया!!

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