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8 Feb 2017 · 1 min read

तब खुद को मैंने समझाया ।

नवगीत।तब खुद को मैंने समझाया।।

यह जीवन है इक पगड़न्ड़ी काली रात घनेरी ।
खुद की मानो भरो हौशला कभी करो न देरी ।।
हर सिक्का वह
खोटा निकला
जिसपर मैंने दाँव लगाया ।।
तब खुद को मैंने समझाया।।

धुंधले होंगे भाग्य तुम्हारे टिमटिम करते तारे ।
दूर दूर तक रहे चाँदनी है दुःख के उजियारे ।।
छाया फैली
सम्मोहन की
पग पग पर जिसने उलझाया ।।
तब खुद को मैंने समझाया ।।

झूठी होगी आश्वाशन में पली हुई लोलुपता ।
झूठे होंगे रिस्तो की वो अगम पिपासी क्षुधता।।
सिर्फ अकेले
हल करना था
एक पहेली सा सुलझाया ।
तब खुद को मैंने समझाया ।।

जीवन नौकाजग अथाह सागर तट फौव्वारे ।
भवरें भी है , गहरी खायीं’ जर्जर है पतवारें ।।
गोताखोर
सरिस है दुश्मन
अवसर पाते नाँव डुबोया ।
तब खुद को मैंने समझाया ।।

अभी वक्त है कोशिस कर लो मंजिल की परवाह ।
प्रबल वेग से बढ़ते रहना तुम सतपथ की राह ।।
उम्र ढली तो
खून के आंशू
न जाने कितनों ने रोया ।
तब खुद को मैंने समझाया ।।

©© राम केश मिश्र

Language: Hindi
Tag: गीत
338 Views

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