ग़ज़ल
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खुशी में भी हम अपने आंसुओं के साथ रहते हैं।
मुकम्मल हम नही हैं खामियों के साथ रहते है।
लगाकर आग बस्ती में, दिलासा बाद में देना।
यह किस्से क्यों हमेशा कुर्सियों के साथ रहते हैं।
कई किस्सा मुकम्मल भी अधूरा भी या पूरा भी।
मगर कुछ लोग तो हर सुर्खियों में साथ रहते हैं।
बसाई बस्तियां हमने बनाए आशियां हमने।
ना जाने किस लिए वह बिजलियों के साथ रहते हैं?
उन्हें मालूम क्या होगा कि भूखे पेट में बच्चे।
डरे सहमे,नगर की गुमटियों के साथ रहते हैं।
सगीर अच्छाइयां और खूबियां कोई नहीं दिखती।
ऐब सब ढूंढते हैं, गलतियों के साथ रहते हैं।