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8 Aug 2022 · 4 min read

*”काँच की चूड़ियाँ”* *रक्षाबन्धन* कहानी लेखक: राधाकिसन मूंदड़ा, सूरत।

बात उन दिनों की है जब मै १०-११ साल का था. मैं अपने माता पिता के साथ अपने मामा के यहाँ गया हुआ था. सावन का महीना था मामा के घर के सामने की साइड में एक बड़े मियाँ का घर था, उनका असली नाम किसी को नहीं पता, सब उन्हें बड़े मियाँ के नाम से ही जानते थे, उनके घर में एक पुत्र थे सलीम चाचा, उनकी बहू सलमा चाची, और मेरी उम्र के दो बच्चे रुखसार और अरमान. मैं कभी अपने मामा की दूकान पर, कभी मौहल्ले में उनके साथ खेलता रहता था. उन्ही दिनों पास ही के बड़े मैदान में सावन मेला लगा था. मौहल्ले के बच्चों से मेले के बारे में सुना तो मैंने माँ से मेले में ले जाने का कहा तो उन्होंने पिताजी से पूछ कर बताने का बोला, मगर बात नहीं बनी. दो दिन बाद रुखसार और अरमान काफी खुश नजर आ रहे थे, पूछने पर बताया कि वे मेला देखने जा रहे हैं, वे खुश थे मगर मैं उदास हो कर घर आया. माँ ने पूछा तो रोते रोते पूरी बात बताई. उन्होंने मुझे मेले के बारे में आश्वस्त किया. अगले दिन माँ ने बताया कि रविवार को रुखसार और अरमान के साथ सलीम चाचा मुझे भी मेला घुमाने ले जायेंगे. मेरे तो जैसे पंख लग गए मैं दिमागी तौर पर मेले में घूमने लगा. रविवार शाम को हम सब तैयार होकर मेला देखने निकले. रास्ते में सलीम चाचा को कोई मिलता, वे उनसे बातें करने लगते तो हम तीनों ने उनसे जल्दी करने की जिद्द करते तो वे हंसने लगते. मेले में पहुँच कर हमें काफी आनंद आया, झूला झूले, खिलौने देखे, करतब देखे, अब भूख लग रही थी, इसलिए सलीम चाचा हमें खाना खिलाने वाली जगह पर ले जाने लगे. रास्ते में एक दुकान देख कर रुखसार रुक गई उसने अरमान से रंग बिरंगी कांच की चूड़ियाँ दिलाने को कहा, अरमान उसकी बात को अनसुना करता हुआ आगे निकल गया. रुखसार का चेहरा रोने जैसा हो गया. मैंने दुकानदार से चूड़ियों का दाम पूछा तो उसने 7 रुपया बताया लेकिन मेरे पास तो सिर्फ 5 रूपये थे जो मेले में आते समय माँ ने दिए थे. दुकानदार भला आदमी था उसने हमारी परिस्थिति को भांप कर 5 रूपये में वो चूड़ी का डब्बा दे दिया. रुखसार का चेहरा गुलाब की तरह खिल उठा. तभी अरमान आता हुआ दिखा हम जल्दी से डब्बा लेकर उसकी तरफ दौड़े. चाचाजी ने हमें भर पेट खिलाया. थोड़ी देर और घूमने के बाद शाम होने से पहले हम सब घर आ गए.

दो दिन बाद रक्षाबंधन आने वाला था इसलिए माँ मामाजी के लिए राखियाँ ले रही थी तभी सलमा चाची आई उन्होंने माँ से कुछ कहा, उस वक्त पिताजी भी घर पर थे उन्होंने मुझे आवाज लगाई, जैसे ही मैं उनके पास पहुंचा उनका एक झन्नाटेदार थप्पड़ मेरे गाल पर पड़ा, मैं कुछ समझता तब तक दूसरी तरफ एक और पड़ गया. वो तो माँ ने मुझे अपने आँचल में छुपा लिया वर्ना पता नहीं कितने और पड़ते, मैं सिर्फ रोये जा रहा था, थप्पड़ पड़ने की वजह पूछने की तो हिम्मत ही नहीं थी. सलमा चाची भी थप्पड़ कांड देखकर चली गई. उनके जाने के बाद माँ ने पूछा क्या तूने मेले में चोरी की, अरमान कह रहा था कि तुमने और रुखसार ने एक दूकान से चूड़ियों का डब्बा चुराया, तब मेरी समझ में थप्पड़ की वजह आई और मैंने माँ को सारी बात बताई कि कैसे मैंने अपने 5 रूपये से रुखसार के लिए वो चूड़ियों का डब्बा ख़रीदा. उधर सलमा चाची को रुखसार ने सारी बात बता दी, और मुझे राखी बाँधने की जिद करने लगी. उनके यहाँ ये त्योंहार नहीं मनाया जाता. राखी के दिन फिर सलमा चाची आई और माँ से कुछ कहने लगी, मुझे लगा आज फिर… इसलिए मैं छत पर चला गया, माँ आवाज देती रही मगर मैंने एक नहीं सुनी. थोड़ी देर बाद मामाजी ऊपर आये उन्होंने बताया कि सबको मेले की असलियत का पता चल गया है. बड़े मियाँ खुद तुमसे मिलने आये हैं. मैं अपने गालों पर हाथ रखे हुए उनके साथ नीचे आया तो सब हंसने लगे. बड़े मियाँ बोले बेटा मुझे भी लगता है कि तुमने रुखसार के भाई होने का फर्ज अदा किया है. हम सब तुम्हारे व्यवहार से खुश हैं. हालाँकि ये हमारा त्योंहार नहीं है फिर भी आज हम रुखसार को इसकी इजाजत देते हैं. रुखसार ने मेरी कलाई पर एक राखी बांधी, तो उसके हाथ में वही मेले वाली काँच की खुबसूरत चूड़ियाँ पहनी हुई थी.

आज ४० साल से अधिक समय हो गया, ना तो बड़े मियाँ रहे, ना माँ-पिताजी, ना हमारा कभी दुबारा मिलना हुआ मगर हर साल रक्षाबंधन के दिन मुझे वो घटना याद आ जाती है…

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