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18 Apr 2023 · 4 min read

कहानी। सेवानिवृति

कहानी लेखन

आज मामाजी के रिटायरमेंट की एक फैमिली पार्टी थी।
मामाजी भी आज तरोताजा से लग रहे थे ,आम तौर पर सेवानिवर्ति पर लोग बुझ बुझ से जाते है।परंतु मामा साहब तो जिंदादिली के सागर जो ठहरे , बुझा दिल ,निराशा ,उदासी जैसे बेकार बच्चो के लिए तो मामा साहब ने परमानेंट दरवाजे बंद कर रखे थे। लोगो ने बोला सर आज तो आपका घोड़ी पर जुलूस निकालकर नगर की विथियो से अभिवादन प्राप्त करेंगे। मामा साहब बोले नही भाई ,हमने कोई तीर नही मारा है जो घोड़ी पर बैठे और फिर घोड़ी पर चढ़ने की क्या कीमत चुकानी पड़ती है यह तो वो ही जानता है जो … यह कहते हुए मामा साहब ने मामी जी की तरफ आंख…। खैर तय यह रहा कि पार्टी की जाएगी घर पर या किसी पवित्र परिसर में।
और आज वो दिन आ गया था।। एक मंदिर के परिसर में यह भव्य पार्टी सादगी के साथ मनाई जा रही थी, लगभग सभी इष्ट जन या परिजन ही शामिल थे इसमें। डीजे पर बच्चे थिरक रहे थे , उन्हे इस बात का कोई फर्क नहीं पड़ता था कि पार्टी वेडिंग पार्टी है या बर्थडे या कोई और , बस उन्हें तो गाना बजना चाहिए फिर उनके पैर कब उनकी सुनने वाले थे। अभी भोजन प्रसादी में तनिक विलंब भी प्रतीत होता था। ऐसे में तन्मय के मस्तिष्क में एक विचार कौंधा , कि क्यों न मामा साहब के व्यक्तित्व पर विचारो का तड़का इन गानों के बीच बीच में लगा दिया जाए। और फिर क्या था , तन्मय का हाथ माइक उठाने कोविवश हो गए। उद्घोषक बन कर उद्घोषणा कर दी , कि सुनो सुनो अब आने वाले एक घंटे में हम एक इवेंट करने जा रहे है। जिसमे सभी को पार्टिसिपेट करना होगा। आप अपने आप को तैयार कर ले ,किसी को डांस ,तो किसी को गाना ,किसी को दो शब्द आदि प्रस्तुत करना होगा और मामा साहब को बधाई ,प्रणाम पुष्प गुच्छ जो भी निवेदित करना चाहो वो होगा।

अब मना तो कौन करता भला ।
कोई एक सोफा उठा लाया जिसे डीजे फ्लोर के पास लगा दिया एवं उस पर मामा साहब एवं मामी जी को बिठा दिया गया साफे में मामा जी बिल्कुल दूल्हे की तरह फब रहे थे और मामी जी भी इस उम्र में कोई कम नहीं लग रही थी दोनों एक दूसरे के पूरक थे यह क्रम इसी तरह चल रहा था एक-एक कर सब आ रहे थे और अपनी प्रस्तुतियां दे रहे थे ऐसे में बारी प्रिया की भी आई कहने को तो प्रिया मामा साहब के भानेज की बहु थी। परंतु उससे स्नेह बिल्कुल पुत्री जैसा ही था ,जब प्रिया की बोलने की बारी आई तो पहले तो प्रिया शरमाई परंतु मामा साहब के प्रति जो अनुराग था उसकी वजह से वह स्वयं को बोलने से नहीं रोक पाई। अब सजी संवरी प्रिया अपने से ज्यादा वजन के लहंगे को उठाकर मंच की तरफ बड़ी माइक हाथ में लिया और बोली। आज पहली बार माइक पकड़ कर के बोलने की कोशिश कर रही हूं यदि कोई गलती हो या शब्द इधर-उधर हो जाए तो सभी से क्षमा प्रार्थी हूं। आज यह शुभ अवसर आया है की मामा साहब जिन्होंने हमेशा मुझे अपनी बेटी से ज्यादा प्यार दिया उनके बारे में क्या बोलूं कहां से बोलूं कैसे बोलूं कुछ समझ नहीं आ रहा बस इतना जानती हूं की मामा साहब।
मां का मतलब एक कायनात का प्यार होना परंतु मैं सोचती हूं मां में दो बार मां शब्द क्यों आता है, तो मुझे लगता है की जो 22 मां का प्यार देने में सक्षम है या दोनों माताओं का सास का एवं मां का प्यार देता है वही मामा होता है और मुझे यह कहने में कोई गुरेज नहीं की मामा साहब ने मुझे मेरी दोनों माताओं का प्यार दिया है । जब कभी मुझे किसी बात की जरूरत होती तो मामा साहब बिना मेरे बोले मेरी सहायता करने को तत्पर होते जैसे मेरी मां हो इनके होते मुझे मां बाद में याद आती हो पहले यह याद आती है और मेरा। इसी प्रकार यदि मुझ में कोई खोट होती या कोई कमी होती तो यह सास बनकर मुझे बड़े प्यार से समझाते और अक्सर बोलते की देखो हम इंसान हैं गलतियां सबसे होती है तो हमसे भी होगी लेकिन। गलतियों की वजह से हमें हताश होकर नहीं बैठना है। अपनी बहन का बचाव करते हुए शब्दों की शिल्पी बनकर एक बार मुझसे कहा।
बेटा मेरी बहन तो भूलिए हो सकता है कभी तुझे गुस्से में कुछ कह दे तो बुरा मत मान जाना। और मामा साहब की बात को चारलाइन्न में इस तरह कह सकती हूं।

पकड़ के शब्द इसके ना नयन में नीर तुम लाना उठाकर बैग गुस्से से घर से तुम न चल जाना।
अरे गुस्सा मेरी बहना का बस होता है इतना ही
उबलता दूध जैसे है फिर वापस से थम जाना

और तो क्या बोलूं। ईश्वर से यही प्रार्थना करती हूं आपका स्नेह वाला हाथ हमेशा हमारे सर पर रहे।
हम चाहकर भी आपके प्यार का कर्ज कभी नहीं उतार पाएंगे। अब शब्द जवाब दे रहे है आगे कुछ न कह पाऊंगी। श्री चरणों में नमन करती हुई अपनी वाणी को विराम देती हूं। और प्रिया मंच से तुरत उतर गई।
प्रिया के उतरते ही तन्मय ने माइक पकड़ा और बोला , शाबाश प्रिया ,पहले तो मुझे डर था कि पता नहीं तुम क्या बोलोगी।। क्यों कि बहुत से पढ़े लिखे लोगो को भी यह पता नही होता कि किस मंच से क्या बोलना चाहिए। अपनी सोच को ही हांकते रहते है। परंतु आज तुमने भले ही पहली बार बोला हो , परंतु पारिवारिक मंच के अनुकूल ही बोला। अब मैं आवाज लगाता हूं।मामाजी के स्टाफ के साथी श्री मन्मथ जी को …..

क्रमश:
कलम घिसाई

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