आग हूं… आग ही रहने दो।
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धधकती आग की एक चिंगारी हूं,
लहकती ज्वाला सी एक चिंगारी हूं।
राख कर दूंगी जब आगोश में आओगे,
ऐसी हरकत की एक चिंगारी हूं।
फितरत है मेरी छूने पर जलाना,
गुमान रखती हूं, पास न आना।
बच के रहना मेरी नजरों से,
नही तो बिगड़ जायेगा पैमाना।
जिद्दी हूं,क्रोधी हूं, नादान परिंदे,
विवश होकर जलाती हूं।
कसमकश में कहना चाहूंगी कि,
छूने मात्र से तिलमिलाती हूं।
गर नाराज़ होकर शब्दों में कहें
तो मैं सबकी आस भी बुझाती हूं।
फिक्र नहीं है बल्कि एक दिन
तुमको भी नाच नचाती हूं।
आना मेरे महफ़िल में तुम एक दिन,
जब मेरी करामात देखेगा।
आंखों में लपट ऐसी दूंगी तो,
मेरा सचमूच में ठाठ देखेगा।
आग हूं…. आग हूं…… आग ही रहने दो।
अनिल “आदर्श”
कोचस, रोहतास,बिहार
वाराणसी, काशी