* मेरे गाँव का चित्रण *. *मेरे गांव की सुबह*
क्षितिज को चीर फैलने को आतुर सी सुबह,
किरणो से आच्छादित सूर्य आहिस्ता आहिस्ता,
उतर रहा हैं समेटने को धरती का अंधेरा,
वहीं दूर किसी अंतिम छोर पर बिखरता गुलाल,
पंछियो का एक सुर में मधुर सा चहचाहना,
कुछ ऐसी ही हैं मेरे गांव की सुबह!
दौड़ती भागती सी ज़िन्दगी से दूर बहुत दूर,
शान्त, नीरव पावन सी इक सुबह,
खिलखिलाती धूप की मुस्कराहट में मुस्काती,
खिलते फूलों की क्यारियों में इठलाती सी,
कुछ ऐसी ही हैं मेरे गाँव की सुबह!!
कुछ ऐसा है मेरे गाँव का परिवेश।
सबके पास रंग बिरंगे कपडे है नही कोई गणवेश।
चिड़ियों की चहक मन्दिर की घंटी और शंख की गूंज से होती है सुबह ।
सूरज की किरणे और माँ की दुआ।
ऐसी होती है मेरे गाँव की सुबह ।
सभी गांव के व्यक्ति हो जाते है अपने काम में व्यस्त।
झूमते गाते रहते है मदमस्त।
हँसते मुस्कुराते निकलते है बच्चे स्कूल को ।
पड़ लिखकर मिटते है दिमाक में लगी धूल को ।
युवा भी भूल जाते है बेरोजगारी का गम ।
ऐसे होती है मेरे गाँव में सुबह हरदम।
यह नही किसी के प्रति ईर्ष्या नही किसी के प्रति दुवेष।
कुछ ऐसा है मेरे गाँव का परिवेश।
प्रसिद्ध मंदिर है माँ इलाई का ।
मेला भी लगता है जुलाई का।
सर्वप्रथम पूजते हम गणेश ।
कुछ ऐसा है मेरे गाँव का परिवेश।। ??कवि निर्भय धर्मेंद्र राजपूत।
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