ये हमारे कलम की स्याही, बेपरवाहगी से भी चुराती है, फिर नये शब्दों का सृजन कर, हमारे ज़हन को सजा जाती है।
मंज़िलों की तलाश में, अक्सरहां ज़िन्दगी गुम सी जाती है, खुद के अक्स को भी, पहचानने से ये कतराती है। लम्हों की साजिशें, जिंदगी को यूँ उलझाती हैं, कि कतरा-कतरा...
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