मुक्तक
मौज दरिया की मेरे हक़ में नहीं तो क्या हुआ,
कश्तियाँ भी पाँव उल्टे चल पड़ी तो क्या हुआ,
आसमाँ गिरने में लगता है कि थोड़ी देर है,
पाँवों के नीचे से खिसकी है ज़मीं तो क्या हुआ।
मौज दरिया की मेरे हक़ में नहीं तो क्या हुआ,
कश्तियाँ भी पाँव उल्टे चल पड़ी तो क्या हुआ,
आसमाँ गिरने में लगता है कि थोड़ी देर है,
पाँवों के नीचे से खिसकी है ज़मीं तो क्या हुआ।