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28 Aug 2018 · 3 min read

मेरा नाम आजादी है...

मेरा नाम आजादी है
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क्या आप मुझे जानते हैं ? मेरा नाम आजादी है l मैंने जब से होश संभाला है, तबसे अपने परिवार के बारे में विचार करती हूं l
मेरे परदादा को सूली पर टांग दिया गया था l मेरी बुआ जी तो कैद खाने में ही चल बसी थी l पिता का कुछ पता नहीं चला l भाइयों को गोली से भून दिया गया मामा , मोसा , चाचा , ताऊ सभी ने अपने अपने प्राणों की आहुति दे दी l
यथार्थ तो यह है कि तत्कालीन शासन मेरे जन्म को अपशगुन मानता था उसने मुझे पैदा होते ही कुचल देने की भरसक कोशिश की परंतु मुझे तो रोशनी देखनी थी सो मैंने अपने जन्मदिन की खुशियां देखी l
अब मेरी उम्र तकरीबन 72 वर्ष हो गई है जब मैं सोच विचार करती हूं कि सत्ता पक्ष तो सत्ता लोलुपता बस दूर दृष्टि वाला हो गया है तो मुझे लगता है,कि बास्तव में मेरा जन्म अपशकुन ही था l
मैं अपने विवाह के बारे में 21 वर्ष की उम्र से ही सोच रही हूँ पर विवाह नहीं होना था सो नहीं हुआ मेरी तरुणायी ढल गयी किंतु मेरा मनपसंद तरुण मेरे आंगन नहीं आया आैर जो आया भी वह मुरझाया चेहरा लिए और अपने आप में ही खोया खोया सा कोई राष्ट्रपिता को तो कोई सत्य अहिंसा , इमानदारी और स्वदेशी भावना को गाली देता हुआ मिला हर कोई डिस्को डांस करने वाली लड़की का हाथ पकड़ कर आगे बढ़ जाता तब मैं देखती रह जाती l
अनेक तरुण महानिषेध के लिखे नारे को अपनी सिगरेट से दागते हुए मयखाने में घुस जाते और अनेको ने मेरी ऊँची बोली लगाने की कोशिश की मैंने अनेक तरुणियों की जलाने मारपीट करने की कहानियां सुनी इन सब से मेरा मन भयभीत हो गया l
मैंने एकबार रचनात्मक दृष्टिकोण वाले व्यक्ति को देखा तो उससे आकर्षित होकर बुलाया पर जब से वह कुर्सी की लड़ाई में शामिल होने गया तब से अब तक लौटा ही नहीं l
मैंने परिश्रम, विकास, राष्ट्रभक्ति, शिष्टाचार, समाजवाद और न जाने कितनों को अपनी ओर आकर्षित किया किंतु मुझे हारना था और मैं हार गई l अब मैं अकेली हूं , मेरा कौन साथ देगा ?

मेरी बहन राष्ट्रभाषा व मेरे भाई राष्ट्रीय ध्वज को अनेक बार अपमानित किया गया और कुछ ने तो इन्हें मार डालने की तैयारियां भी कर रखी थी मेरी माता जो हिमालय से हिंद महासागर तक अपनी ऊंचाइयों के लिए विख्यात है उसका अंग भंग करने की भी कुचेष्टा करके पीड़ा पहुंचाई गई l
मैं राजधानी की घुटन से शहर को छोड़कर शांति की तलाश में गांव की ओर गई वहां भी मुझे शांति नहीं मिली वहां एक कंकाल जैसे आदमी ने मेरा नाम पूछा ते मैंने विनम्र भाव से कहा कि मेरा नाम आजादी है और मैं गांव में अपनी माता की आत्मा के पास रहना चाहती हूं वह बोला यहां कोई आत्मा वात्मा नहीं रहती यहां सब कुछ मेरा है तू यहां नहीं रह सकती यहां शरीर रहते हैं आत्माएं नहीं फिर वहां बहुत सारे लोग इकट्ठा हो गए और बोतलें खुल गई बीड़ी के धूएं के गुब्बारे बन बन कर उड़ने लगे मेरा दम घुटने लगा मैं फिर से शहर आ गई l
वहां मैंने सिख, तमिल, महाराष्ट्रीयन, असामी आदि अनेकों के दरवाजे खटखटाए हर एक ने एक ही प्रश्न किया है कि क्या आप अपनी माता को छोड़ कर हमारे साथ रह सकती हैं मैंने उनकी शर्त नहीं मानी फलतः मैं कहीं स्थाई निवास नहीं कर सकी l गुजरातियों को तो मैंने अपने पूर्वजों गांधी, दयानंद, आजाद आदि की याद दिलायी किंतु वह टस से मस नहीं हुए l
फिर मैं कश्मीर में झील के किनारे बैठ गयी वहां अनेक विदेशी मुझे घूरते और अपने साथ अपने देश ले जाने के लिए बहकाते हैं वे मुझसे अपनी भाषा अपनी सभ्यता अपनी संपत्ति अपना धर्म यहां तक कि अपना सब कुछ अर्पित करने के लिए बायदे करते हैं बस उनकी एक ही शर्त है कि मैं उनके साथ उनके वतन चली जाऊँ l
अनेक बार मैंने देश को छोड़ने की कोशिश भी की है मगर मेरी माता अपने विशाल नेत्रों से मुझे डरा देती और मैं सहम कर रह जाती हूँ l अब बिचार कर रही हूं कि मेरी तरुणाई तो ढल ही गई है अतः बिरहणी बन जाऊँ और अपने सारे अरमान कुचल दूं आखिर इसमें हर्ज ही क्या है ?

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