” मुक्तक “
“वक़्त की टूटी टहनी का तकाजा देख रहे थे,
दफ़न उसमें हुए अरमानो का जनाज़ा देख रहे थे,
शाखों पर हवा की छुअन से हुई सिहरन ,
सहमी टहनी में दर्द का अंदाज़ा देख रहे थे ,
बेपरवाह सी बहती हवा को न था इल्म,
दर्द भरी आँखों में हम खामियाज़ा देख रहे थे”