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13 Apr 2018 · 1 min read

बांस के झुरमुटों से बजें सीटियाँ..

कुछ मुक्तक

आवरण त्यागकर भंगिमा नेक लें,
प्राकृतिक ही रहें भाव भी एक लें,
काँपता शीत है सूर्य के सामने,
गुनगुनी-कुनकुनी धूप को सेक लें..

गंध चन्दन भली रंग टेसू भला,
मन वसंती हुआ प्रेम फूला-फला,
रूप यौवन दमकने लगे मदभरा,
राधिका तन बने कृष्ण मन मनचला..

मौज में भांग की हैं खिले मन सुमन,
झूमतीं मस्तियाँ देख मौसम मगन,
स्नेह की चाशनी में लगा डुबकियाँ,
फाग के गीत गाता मचलता है मन..

मूर्ति को मत कहें मात्र पाषाण है,
प्रभु प्रतिष्ठित यहाँ आपका प्राण है
मोहिनी छवि सलोनी हृदय आ बसे,
कामना आपकी तो ही परित्राण है..

आपका है ये घर और परिवार है,
वस्तु सब आपकी मोह बेकार है,
आप ही बस मेरे सत्य जाना यही,
व्यर्थ अपने लिए अन्य सब भार है..

दाल तड़का लगी साथ में लीटियाँ,
स्वीट डिश हो जहाँ आ जमें चीटियाँ,
जो दुपट्टा हिला दें गुजरते सनम,
बांस के झुरमुटों से बजें सीटियाँ..

देख खिलती कली मन भ्रमर दांव में,
वह मचलने लगा प्यार की छाँव में,
याद बचपन की बरबस सताने लगी,
जिन्दगी आ मिली आपके गाँव में..

क्रूर आतंक तो अब न होता सहन,
एक होकर रहें मान लें यह कथन,
आज प्रहलाद जैसा बने मन अगर,
होलिका फिर करे होलिका का दहन..

इंजी० अम्बरीष श्रीवास्तव ‘अम्बर’

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