मुक्तक
मापनी -1222 1222, 1222 1222
अधूरे रह गए सपने,नसों में पीर बन बहते,
बने वो काँच की किरचन,निग़ाहों में रहे चुभते।।
बिछा है जाल जिसे हम फर्ज हैं कहते।
निभाये जो यहाँ उसको,कहीं के वो नहीं रहते।।
सीमा शर्मा’अंशु विजया’
मापनी -1222 1222, 1222 1222
अधूरे रह गए सपने,नसों में पीर बन बहते,
बने वो काँच की किरचन,निग़ाहों में रहे चुभते।।
बिछा है जाल जिसे हम फर्ज हैं कहते।
निभाये जो यहाँ उसको,कहीं के वो नहीं रहते।।
सीमा शर्मा’अंशु विजया’