मुक्तक-मान
मुक्तक
शीर्षक- मान
मापनी -1222 1222, 1222 1222
गिराते मान हो सबका, कभी खुद में नहीं झाँका।
पढ़ाते पाठ औरों को, बड़ाई को बड़ा हाँका।।
तरीके और भी होते, कमी-बेशी बताने के,
मगर तुम हो कि लोगों को, निरा कमतर सदा आँका।।
झुके जो शीश आदर में ,उसी को बस झुकाते हो।
करें जो चाप लूसी ही,उन्हीं को हँस बुलाते हो।।
बताओ तो जरा कीमत, कहाँ ही सत्य की होती,
खरे जो लोग है उनको, खरी खोटी सुनाते हो।।
मधुर जो बोल हो बोले, सभी को ही लुभाएगें।
जरा से प्यार की खातिर, सभी कुछ हम लुटाएगें।।
भले कहते फिरो सबको,सुनो हम स्पष्ठवादी हैं,
नहीं फिर चैन मिलता है, किसी को जो रुलाएगें।।
सीमा शर्मा ‘अंशु विजया’