कवि शाज़
कवि शाज़
शाज़-ए-सफ़र में अजनबी भी अपने लगने लगते हैं,
चंद लम्हों की रफ़्तार में रिश्ते मुकम्मल होने लगते हैं।
जो कल तक थे बेगाने से,
आज वही दिल की हर धड़कन में बसने लगते हैं।
सफ़र जब अकेलेपन से शुरू हो,
तो अजनबी भी हमसफ़र बनने लगते हैं।