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26 Nov 2025 · 10 min read

पुस्तक समीक्षा

पुस्तक समीक्षा
पुस्तक का नाम: शुभम् व्यंग्योत्सव (व्यंग्य संग्रह)
लेखक: डॉ भगवत स्वरूप शुभम्
62, डाल नगर अरॉंव रोड, सिरसागंज (फिरोजाबाद), उत्तर प्रदेश पिन 283151
मोबाइल 9568 481040
(प्राचार्य सेवानिवृत्त राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, सिरसागंज, फिरोजाबाद, उत्तर प्रदेश)
प्रकाशक: शुभदा प्रकाशन, मौहाडीह, झरना, जिला जांजगीर चांपा, छत्तीसगढ़
पिन कोड 495 687
मोबाइल 7987 671210
मूल्य: 600 रुपए
संस्करण प्रथम: सितंबर 2024
समीक्षक: रवि प्रकाश पुत्र श्री राम प्रकाश सर्राफ, बाजार सर्राफा (निकट मिस्टन गंज), रामपुर, उत्तर प्रदेश पिन 244901
मोबाइल 9997615451
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शुभम व्यंग्योत्सव दो सौ पृष्ठ की व्यंग्य विधा की ऐसी पुस्तक है जिसमें साठ उत्सव मनाये जा रहे हैं। हर उत्सव का अलग रंग है। हर उत्सव व्यंग्य का उत्सव है। बात सीधी और खरी कही जा रही है लेकिन कहने के ढंग में कुछ टेढ़ापन भी है। तभी तो यह लेख का न होकर व्यंग्य का उत्सव है। हास्य का पुट व्यंग्य को रुचिकर बनाता है। इसलिए थोड़ी-थोड़ी देर में उसका छौंक लगता हुआ हमें दिखाई देता है।

इसे असंदिग्ध रूप से चिंतन प्रधान पुस्तक कहा जा सकता है। एक पल के लिए भी शुभम् जी चिंतन के पथ से विचलित नहीं हुए। कुछ भी कहें लिखें, वह संपूर्ण सजगता के साथ एक विचारक के रूप में आसन जमा कर बैठे हुए हैं। पुस्तक के आरंभ में ही लेखक ने लिखा है कि व्यंग्य एक ऐसी जीवंत विधा है जो सबके दबे ढके चेहरे उघाड़ डालने में सक्षम है। लेखक का मानना है कि “व्यंग्य के माध्यम से व्यंग्यकार अपने गुदगुदाते हुए आक्रोश के द्वारा तमाम सामाजिक राजनीतिक धार्मिक संस्कृति और सभ्यतागत विसंगतियों पर करारा प्रहार करने का प्रयास करता है।”

यह गुदगुदाता हुआ आक्रोश ही व्यंग्य कहलाता है । पुस्तक में हमें यही दिखता है । यह केवल आक्रोश होता तो नीरस बन जाता, केवल गुदगुदाता तो हॅंसी-मजाक बनकर सिमट जाता, लेकिन यह गुदगुदाता हुआ आक्रोश होने के कारण जोरदार बन गया। जिनके विषय में लिखा गया है, वह बेचारे इशारे समझ कर भी इसकी प्रशंसा करने के लिए बाध्य हैं और इसकी चुभन से परेशान होने के लिए भी अभिशप्त हैं । शुभम जी ने ठीक कहा है कि “व्यंग्य रचना में हास्य और व्यंग्य का मिला-जुला पुट उसे जीवंतता प्रदान करता है।”

पुस्तक के साठ व्यंग्य लेख किसी न किसी समस्या की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं। घर गृहस्थी की छोटी-छोटी बातों से लेकर देश दुनिया की कोई समस्या लेखक की कलम से अछूती नहीं रही है। चिंतक होने के कारण लेखक ने समस्या के मूल पर विचार करते हुए प्रहार भी किया है और समाधान भी सुझाया है। यही जरूरी भी होता है। समस्या को जड़ से पकड़ना और उसके समाधान के बारे में अपने सुविचार प्रस्तुत कर देना यह कोई हंसी-खेल नहीं होता। इसके लिए गहन दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है। व्यापक रूप से समस्या के विविध आयामों को समझना पड़ता है और उसके बाद समस्या की एक-एक परत सुलझाने का काम हाथ में लिया जाता है। लेखक को उन शक्तिशाली लोगों की परवाह नहीं होती है, जो इस पोस्टमार्टम से दुखी होंगे। नीरस कार्य में सरसता पैदा कर देना; यही असली व्यंग्यकार की खूबी होती है। प्रस्तुत पुस्तक में यह खूबी कहीं शुरू में दिखती है, कहीं मध्य भाग में नजर आती है और कहीं रहस्य-उद्घाटन की तरह अंत में प्रकट हो जाती है।

आइए कुछ व्यंग्य के उत्सव किस प्रकार पुस्तक में मनाए गए हैं, इनका अवलोकन किया जाए। शुरुआत का उत्सव इस शीर्षक से मनाया जा रहा है :-“”तुम अगर दिन को रात कहो हम रात कहेंगे”

लेखक प्रारंभ में ही उन लोगों की पोल खोल देता है जो हॉं में हॉं मिलाते हैं। उन्हें चमचागिरी करते हुए अपना उल्लू सीधा करना होता है। लेखक ने इसीलिए तो लिखा है:-

चमचे के नाम से एक नए भारतीय चमचवाद का जन्म हुआ है जो अहर्निश अपने प्रिय भगौने को समर्पित रहता है। (पृष्ठ 14)

चमचे और भगौने के परस्पर संबंधों की व्याख्या करते हुए यह चमचवाद पुस्तक के साढ़े तीन प्रष्ठों को घेर रहा है। चमचे के मन में किस प्रकार के ख्याली पुलाव पकते रहते हैं, इसका रहस्य उद्घाटन पहली पंक्ति में ही लेखक ने यह कह कर कर दिया है :-

चमचा तभी तक चमचा है जब तक वह स्वतंत्र भगौना नहीं बन जाता।

वाह रे वाह ! मजा तो लेख में तब आता है जब लेखक प्रस्ताव करता है कि चमचावाद पर शोध कार्य को भी बढ़ावा दिया जाना चाहिए। कई विषय शोध कार्य के लिए लेखक ने प्रस्तुत किए हैं। उदाहरणार्थ; आधुनिक भारत की प्रगति में चमचों का योगदान, नई पीढ़ी के लिए नवीन अवसर और चमचवाद, चमचवाद के चमत्कार और भगौने, चमचवाद एक उद्योग आदि आदि (पृष्ठ 16) कोई ताज्जुब नहीं अगर लेखक का सुझाव मानकर सचमुच शोध कार्य शुरू हो जाए।

“पारदर्शी नव सभ्यता” शीर्षक से एक दूसरा उत्सव है, जो पुस्तक में मनाया जा रहा है । पुस्तक ही क्या पूरे समाज में मनाया जा रहा है । इसमें लेखक ने लिखा है कि:-

देह के 20% हिस्सों को छोड़कर शेष सब की नुमाइश करना ही नव सभ्यता की पहचान बन गई है। इस क्षेत्र में नारियों ने रिकॉर्ड ही तोड़ दिए हैं और निरंतर तोड़े भी जा रहे हैं। सभ्यता कितनी पारदर्शी होती जा रही है, यह किसी से गोपनीय नहीं है।” (प्रष्ठ 19)

इसी उत्सव के साथ एक और उत्सव भी है। इसमें लिव इन रिलेशनशिप पर लेखक का गुदगुदा आक्रोश प्रकट हुआ है लिखा है:-

बहुत अच्छे! बहुत अच्छे! ऐसे ही किए जाओ और इन सठिआए हुए बूढ़े बुढ़ियों को लात मार कर अपना आशियाना अलग ही बसाओ। तभी तो अति आधुनिक कहलाओ। जब तक जी न भरे तब तक लिव इन के अनुभव पाओ। जब भर जाए एक दूसरे से जी, तब मारो दो लात” (प्रष्ठ 23)

अनेक व्यंग्य ऐसे हैं जिनमें अभिव्यक्ति का कला कौशल बत्तीस दांतों के बीच रहने वाली मुलायम जीभ की तारीफ करते हुए मिलेगी। व्यंग्यकार ने क्या खूब लिखा है:

अपना काम करके झटपट बत्तीस हिमायतियों के बीच लुप्त होकर अपना भला भाव दर्शन कराती है (प्रष्ठ 26)

जब टमाटर महंगे हो जाते हैं, तब टमाटर पर महंगाई का असर वैसे तो समाचार पत्रों की सुर्खियां बनता है। अनेक विश्लेषक अपने-अपने ढंग से महंगाई की मार और रसोई पर उसके प्रभाव का वर्णन करते हैं। लेकिन जब टमाटर की यही महंगाई एक सधे हुए व्यंग्यकार के पास विषय के रूप में आती है तो बहुत मजेदार चित्रण होता है। महंगे टमाटरों की तारीफ में व्यंग्यकार ने जो पुल बॉंधे हैं, उनकी रसमयता का आप भी जायजा लीजिए:-

अब टमाटर की प्रोन्नति होने से उसका आसन बहुत ऊंचा हो गया है। अब वह फ्रिज में नहीं रहता। वह तिजोरियों की शोभा बन गया है। सास बहू को दाल में तड़का लगाने के लिए अलमारी का लॉकर खोलती हैं। फिर उसमें से आहिस्ते से एक टमाटर बाहर लाती है। अलमारी में ही रखा चाकू उठाती हैं और टमाटर को लाड़ लड़ाती हैं। एक मंत्र जैसा बुदबुदाती हैं और उदासी भरा मुंह बनाती हैं। तब जाकर टमाटर को शहीद करती हैं। बचा हुआ आधा भाग पुनः तिजोरी में सजाती है। (प्रष्ठ 35)

इसी व्यंग्य लेख में जब लेखक ने महसूस किया कि टमाटर महंगा होकर अब सब्जियों के स्थान पर महंगे फलों की श्रेणी में आ गया है, तब उसने टिप्पणी लिखी :

अब तो धर्म परिवर्तन कर सब्जी से फल हो गया।

भ्रष्टाचार के बारे में लेखक की यह टिप्पणी सबको पसंद आएगी। लिखा है :-

भ्रष्टाचार सबके पसंद की चीज है। विपक्ष इसलिए दुखी है क्योंकि उसे अवसर नहीं मिला और सत्ता पक्ष आने वाले पॉंच वर्षों में सत्ता के जाने की आशंका से कि कल यह मौका उन्हें न मिल जाए जो विपक्ष में बैठे हैं। (प्रष्ठ 41)

जो लोग राजनीति के दॉंव-पेंचों को जानते हैं और पक्ष विपक्ष के सारे कर्मकांडों से परिचित हैं वह ऊपर लिखी पंक्तियों में गहरी सत्यता का अनुभव करेंगे।

आस्तीन के सांप एक मुहावरा है, जो उन लोगों के लिए प्रयोग में आता है जिनके बारे में यही कहा जा सकता है कि वे जिस थाली में खाते हैं उसी में छेद करते हैं। आस्तीन के सांपों को लेखक ने बहुत बढ़िया तरह से पहचाना है। उनकी प्रवृत्ति का आकलन किया है और फिर लिखा है कि :-

सपोले पहले आस्तीन में घुसे-घुसे दूध पीते हैं और यही वयस्क होकर जिसका पीते हैं उसी को डॅंसते भी हैं। बस अवसर की तलाश भर रहती है। (प्रष्ठ 57)

आंखों पर बहुतों ने बहुत कुछ लिखा है। शुभम जी ने भी दुनिया देखी है। वह नेताओं और पुलिस वालों की आंखों पर जो लिख रहे हैं, वह बिल्कुल सही लिखा है।:-

जिस शक भरी आंख से पुलिस देखती है, आम आदमी की आंख से कितनी भिन्न रहती है। राजनेता की आंख कुछ और ही होती है। मजबूरी में आदमी नेता के पास जाता है। वरना किसी बुद्धिमान को नेता फूटी आंख नहीं सुहाता है। (प्रष्ठ 61)

ध्वनि प्रदूषण पर लेखक का गुस्सा उचित है। भला किसे गुस्सा नहीं आएगा। लेखक ने भी ध्वनि प्रदूषण से तंग आकर समाज का प्रतिनिधित्व करते हुए लिख डाला:-

यहां श्रेय केवल ढोल पिटैया को मिलता है। यहां दिमाग का मूल्य नहीं। मूल्य बातों का है। शोर का है। (पृष्ठ 65)

बुरे पड़ोसी के नुकसान तो सबको पता है, लेकिन फायदे केवल शुभम् जी ही गिनवा सकते हैं। उन्होंने गिनवाए भी हैं। आप भी बुरे पड़ोसी के फायदे सुनिए:-

बुरा पड़ोसी किसी भाग्य से कम नहीं है। वह ज्यादा सोने से बचाता है। स्वयं भी न सोता है, और न सोने ही देता है। जब कोई कम सोएगा तो सक्रिय भी अधिक रहेगा। ज्यादा काम करेगा तो बड़ा नाम भी करेगा। किसी की जलन हमें विकास, प्रगति और समृद्धि की ओर अग्रसर करती है। यही काम हमारा पड़ोसी भी कर रहा हो तो बुरा भी क्या है। (प्रष्ठ 72)

“बातें बना बात बना” शीर्षक से व्यंग्य में शुभम् जी ने बातें बनाने की कला की तारीफ की है। सब जगह लोग बातें बना रहे हैं। इस बातें बनाने में निपुण व्यक्तियों की प्रशंसा करते हुए वह लिखते हैं:-

बस स्टैंड रेलवे स्टेशनों बस ट्रेन आदि में फिरहुए बेची जा रही सामग्री की ऐसी-ऐसी खूबियां बताते हैं की गंजा आदमी भी कंघी खरीद लेता है। (प्रष्ठ 87)

‘बाबा नागार्जुन के उपन्यासों में आंचलिक तत्व’ विषय पर शुभम् जी का शोध प्रबंध है। 1976 – 77 के शोध कार्य को अपने एक व्यंग्य में वर्णित करते हुए उन्होंने एक लोकगीत की पंक्ति को उद्धृत किया है । लिखा है :-

चाहे बालम बिक जाए.. चाहे बिक जाए सासु को लाल.. बैठूंगी मोटर कार में …नई व्याहुली मोटर कार में बैठने के लिए सास ससुर घर-बार जेठ जेठानी नंद देवर देवरानी बालम सब कुछ दॉंव पर लगाने के लिए तैयार है। यही स्थिति आज एक जुआरी शराबी की तरह देश की भी है। सत्तासन के लिए कुछ भी बेच देने की बात अच्छी और अनुभव की जा रही है। (प्रष्ठ 95-96)

कहावतें को आधार बनाकर शुभम् जी ने अनेक बार चर्चाएं की हैं। प्रसिद्ध कहावत है ‘घर का न घाट का’। आजकल के मनुष्य के जन्म, इलाज, मृत्यु और विवाह को पैनी निगाह से देखने के बाद व्यंग्यकार ने यह पाया कि सारे कार्यक्रम के बाहर हो रहे हैं। तब उन्होंने चुटकियां लेने के बाद सारगर्भित चिंतन इन शब्दों में प्रस्तुत किया:-

आज के आदमी का सब कुछ घर से बाहर ही संपन्न हो रहा है। जीने से मरने तक का सारा इंतजाम घर से बाहर ही है। फिर यह घर किसके लिए? किस काम के लिए है? घर की संस्कृति मर चुकी है। इसलिए अब लोगों में घर के प्रति जो आत्मीयता का भाव पहले होता था, अब नहीं रहा। घर मकान हो गए। (प्रष्ठ 115)

नारों के आधार पर सारी राजनीति चल रही है। व्यंग्यकार ने नारों के खोखलेपन को देखा और उसकी तुलना पजामा बॉंधने के लिए प्रयोग में आने वाले नाड़े से कर डाली। क्या खूबसूरत तुलना है! पाठक पढ़ेंगे और ठहाके लगाने को विवश हो जाएंगे:-

जनता ही तो वह पाजामा है जो बिना नाड़ा बनाम नारा के खिसक-खिसक जाएगी.. नाड़ा नहीं तो पजामा क्या! उधर नारा नहीं तो देश क्या! इसलिए चुनाव पूर्व अपने घोषणा पत्र में नए सिले-सिलाए नारे पेश किए जाने की अनवरत परंपरा है, जिसका निर्वाह प्रत्येक राष्ट्रीय या क्षेत्रीय पार्टी द्वारा किया जाता है। (पृष्ठ 117 – 118)

परिवारवाद जातिवाद सांप्रदायिकता आदि अनेक कविताओं के कारण संसाधनों की बंदर बात भला किस अप्रिय नहीं लगती शुभम जी ने एक ले ख गधे पंजीरी खाएं और दूसरा लेख आओ चलो रेवाड़ी बनते इसी को प्रथा को देखते हुए लिखा है अगर एक ही विषय दो बार लेखक को चोट पहुंचा रहा है तो इसका मतलब है कि वह राष्ट्र की ज्वलंत समस्या है। यह केवल अपने लोगों को फायदा पहुंचाने की बुराई नहीं है यह है राष्ट्र को नष्ट करने का क्रिया का नाम है इसीलिए शुभम जी लिखते हैं :-

एक अंधा रेवड़ी बांट रहा है। मजाल है कि कोई एक भी उसके घर परिवार, जाति बिरादरी, धर्म मजहब, गोत्र फिरका का एक बच्चा भी छूट जाए और अन्य घर परिवार से इतर जाति, गोत्र, मजहब का ले तो जाए। ऐसा कदापि नहीं हो सकता। (प्रष्ठ 127)

साहित्य-लेखन में कुछ लोग जानबूझकर कठिन से कठिन शब्दों का प्रयोग करते हैं। ऐसा करते हुए अपने को उच्च स्तरीय साहित्यकार भी घोषित करते हैं तथा उनकी रचना को वाह-वाही देने वाले श्रोता भी प्रबुद्ध माने जाते हैं। इस उल्टी चाल पर सीधी-सीधी टिप्पणी एक व्यंग्य-लेखक ही कर सकता है:-

कोई भी श्रोता से पूछने तो नहीं जा रहा है कि आप क्या समझे ? ताली बजाने या वाह-वाह करने में जाता भी क्या है! यदि आप ऐसा नहीं करते हैं तो आपको निम्न स्तरीय श्रोता समझ लिए जाने का खतरा है। सामने वाले को सराहिये। इससे आप प्रबुद्ध वर्ग में आगणित किए जाएंगे। (प्रष्ठ 151)

‘कीचड़ उछालना’ भी एक कहावत है। राजनीति तो कीचड़ उछालने से ही चल रही है। इस परिदृश्य पर लेखक ने जो देखा, वही ज्यों का त्यों लिख डाला:-

कीचड़ राजनीति की खाद है। वह उसकी पोषक तत्व है। जो जितनी कीचड़ उछालने की दम रखता है, उस नेता का स्तर उतना ही बढ़ जाता है। (प्रष्ठ 169)

शुभम जी के गद्य व्यंग्य में पद्य का सौंदर्य कदम-कदम पर देखा जा सकता है। आइए लेखक की इस अद्भुत प्रतिभा का भी रसास्वादन किया जाए:-

कीचड़ वर्तमान राजनीति का श्रृंगार है। आज की राजनीति में कीचड़-गंध की बहार है। इसे कुछ यों समझिए कि यह जेठ वैशाख की तपते ग्रीष्म में सावन की मल्हार है। वसंत की बहार है। भेड़ों की तरह हांकी जा रही जनता का प्यार है। (प्रष्ठ 170)

पुस्तक में ‘छिपकलियों की जंग’ को भी व्यंग्यकार ने बहुत मजेदार अंदाज में लिखा है। ‘नई साड़ी’ के प्रति स्त्रियों के आकर्षण को भी उसने अपने व्यंग्य का विषय बनाया है। आजकल रील बनाने की अंधी दौड़ को भी उसने ‘फोटो फुटौवल’ शीर्षक से अभिव्यक्ति दी है। कुल मिलाकर दैनिक जीवन के अनेक विषयों को व्यंग्यकार ने एक्स-रे करके देखा है, उनके भीतर की विसंगतियों को पकड़ा है और हल्के-फुल्के अंदाज में लोगों के सामने इस तरह रख दिया है कि हंसकर बात टल भी नहीं पा रही है और हंसी-मजाक में ही गहरी चोट भी कुरूपताओं पर सफलतापूर्वक कर दी गई है। डॉक्टर भगवत स्वरूप शुभम् को बधाई।

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