#नवाचार:-
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■ आधा और आधा पूरा।
[प्रणय प्रभात]
हमारे आपके पुरखे कहते आए कि-
“घर का जोगी जोगड़ा, आन गांव का सिद्ध।”*
सदियों से आज तक नहीं बदली समाज की इस घटिया व शर्मनाक सोच पर आज मैंने भी जोड़ दिया-
“उन्हें गरुड़ क्या भाएगा? जिन्हें भा रहे गिद्ध।।”
हो गई ना एक पुरानी कहावत नए उदाहरण के साथ पूरी। बन गया ना एक और नया दोहा.!! वो भी हाथों-हाथ, उन धूर्त लोगों पर, जिन्हें अपनों की कोई क़द्र आज भी नहीं। मादान्ध और भाव न देने वाले बेगानों पर जी जान से लट्टू होने के चक्कर में।
“घर की मुर्गी, दाल बराबर” समझने वाले मूढ़ लोग। मतलब
“घटिया लोग, घटिया पसंद।” जी हां, बिल्कुल वही, “मलयागिरि के भील।” मात्र लकड़ी समझ कर “चंदन” फूंक डालने वाले।*
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■प्रणय प्रभात■
●संपादक/न्यूज़&व्यूज़●
श्योपुर (मध्यप्रदेश)