कभी सच बोलने की आरज़ू में हम भी टूटे हैं,
कभी सच बोलने की आरज़ू में हम भी टूटे हैं,
मगर झूठों की बस्ती में सभी तौर-तरीक़े झूठे हैं।
हमारी सादगी को लोग समझ बैठे कमज़ोरी,
इसी भरम में अक्सर वो खुद अपने आप से रूठे हैं।
नज़र जब भी मिलाई उनसे, पर्दे वो हटाते थे,
मगर दिल खोल देने में वही सबसे ज़्यादा डरे-सहमे टूटे हैं।
हमारी राह में काँटे रख के आगे बढ़ते जाते,
फिर दुनिया से शिकायत है कि रिश्ते सब उनके टूटे हैं।
जहाँ इंसाफ़ बिकता हो वहाँ कैसी दाद माँगेंगे,
वहीं सिक्कों की खनक पर कुछ चेहरों के परदे छूटे हैं।
सुनील बनारसी