#अद्भुत_प्रसंग
#अद्भुत_प्रसंग
● साहित्य की अनमोल धरोहर : एक दोहा।।
【प्रणय प्रभात】
आज हम उस दौर में हैं, जहां समन्वय और सामंजस्य एक वर्ग के दो धड़ों में भी शेष नहीं। ऐसे में बहुत बेमानी है दो समुदायों के बीच पारस्परिक सौहार्द्र व सद्भाव की सलामती की परिकल्पना। कुटिल राजनीति ने आज निहित स्वार्थ की पूर्ति के लिए जो कुचक्र चलाया है, वो बची हुई समरसता को भी मिटा देने पर भी आमादा है। ऐसे में जो इस विषाक्त परिवेश में प्रेरणा रूपी अमृत की एक बूंद चाहते हैं, उनके लिए अपने व देश के अतीत से लगाव अत्यावश्यक है, जो हमें गौरव और वैभव का आभास कराने वाले असंख्य मंत्र प्रसंग व उदाहरण के रूप में देने की सामर्थ्य आज भी रखता है। तामसी वर्तमान में स्वर्णिम अतीत का एक प्रेरक व सुखद प्रसंग आज आपको सौंपना चाहता हूं, जो धर्म के नाम पर विभाजन से परे मर्म के बूते एकता व समभाव का सबक़ देता है। अव्छा लगे तो घर परिवार की नई पीढ़ी तक साझा अवश्य कीजिएगा।
प्रसंग के केंद्र में है हिंदी साहित्य का एक दोहा, जो एक युग के दो महाकवियों के बीच तत्कालीन मानसिक व आत्मिक जुगलबंदी की देन माना जा सकता है। चार चरण व दो पंक्ति के इस एक दोहे की आज कोई प्रमाणिकता है या नहीं, पता नहीं। बस इतना सा पता है कि इस दोहे की रचना के पीछे एक बेहद सुंदर व अद्भुत कथानक है, जो मानसिक, बौद्धिक व आत्मिक सह-सम्बन्ध को प्रमाणित करता है। साथ ही हम जैसे साहित्यप्रेमियों का रोम-रोम पुलकित करता है। प्रसंग यह भी सिद्ध करता है कि सशक्त साहित्य केवल जोड़ने का माध्यम है, जो हमारे बीच सह-अस्तित्व को परिभाषित करता है। पता यह भी चलता है कि यही समन्वयी साहित्य समकालीन मेधावानों के बीच एक दौर में सह-सम्बन्ध किस माधुर्य के साथ स्थापित करता था।
बात उन दिनों की है जब गोस्वामी तुलसीदास चित्रकूट में लगभग अज्ञातवास के रूप में निवासरत थे। वे कदाचित मुग़ल शासन की सोच व रीति नीति को लेकर आशंकित थे। इस कारण श्री रामचरित मानस की रचना अत्यंत सतर्कता व गोपनीयता के साथ कर रहे थे। उन्हें यह आशंका थी कि यदि बादशाह अकबर को पता चला तो उनका यह सृजनयज्ञ भंग हो सकता है। इसी आशंका के कारण वे अपनी पहचान को छुपाए हुए थे। यह जानते हुए भी कि सुकृत्यों की सुगंध कभी नहीं छिपती। यह बात समय सुयोगवश उनके संदर्भ में भी एक दिन सही साबित हुई। गोस्वामी जी की कीर्ति किसी प्रकार अकबर तक जा पहुँची। हुनर और योग्यता की क़द्र करने वाले अकबर की उत्कण्ठा प्रबल हो उठी। लालसा थी एक बार तुलसीदास जी से प्रत्यक्ष भेंट करने की। उन तुलसीदास जी से, जिनका कोई पता ठिकाना गुप्तचर तक नहीं लगा पा रहे थे।
एक दिन सैर के लिए हाथी पर सवार होकर निकले अकबर ने अपनी मंशा अपने नवरत्नों में शामिल राजकवि अब्दुर्रहीम ख़ानखाना को बताई। बादशाह को अपने दरबार में लेखनी के एक विद्वान के रूप में सम्मिलित कविवर रहीम की काव्य प्रतिभा का पूरा पूरा भान था। साथ ही यह विश्वास भी कि गोस्वामी जी की खोज उनके अतिरिक्त कोई और कभी नहीं कर सकता। कविवर रहीम ने इस चुनौतीपूर्ण कार्य को करने का बीड़ा सहर्ष उठा लिया। वे ख़ुद भी चाहते थे गोस्वामी जी से भेंट का एक मौका। संयोगवश हाथी पर सवार रहीम कवि ने अपने हाथी पर ग़ौर किया। जो चलते चलते भी अपनी सूंड से धूल उठा कर स्वयं के सिर पर डालता जा रहा था। हाथी की यह क्रिया स्वाभाविक थी किंतु उसने रहीम दास जी को एक युक्ति तत्समय सुझा दी। कविवर रहीम के मानस में एक प्रश्नात्मक पंक्ति का जन्म हो गया, जो कुछ इस तरह थी-
“धूरि धरत गज शीश पर, कहि रहीम केहि काज?”
मंतव्य यह था कि गजराज हाथी अपने सिर पर बारम्बार धूल क्यों रखता है?
क़ाफ़िला दरबार में पहुँचने के बाद कवि रहीम ने उक्त पंक्ति बादशाह को सुंताई। साथ ही यह दावा भी कर दिया कि इस पंक्ति पर दूसरी पंक्ति धरती पर केवल तुलसीदास जी ही लगा सकेंगे। किसी और में सामर्थ्य नहीं कि वे उनके प्रश्न का सटीक उत्तर देते हुए दोहे को पूर्ण कर सके। तय हुआ कि पंक्ति को एक प्रतियोगिता के रूप में प्रचारित किया जाएगा। जो सही पंक्ति लगाते हुए दोहे को पूर्ण करेगा, उसे हज़ार स्वर्ण मुद्राएं पुरुस्कार के तौर पर दी जाएंगी। पूरी रियासत में मुनादी कर दी गई। इसके बाद एक एक कर दिन बीतते गए। दूर-दूर के कविगण अपनी अपनी पंक्ति के साथ दरबार में पहुँचते रहे। यह और बात है कि रहीम कवि उन्हें नकारते और लौटाते रहे। उन्हें जिस सार्थक पंक्ति की प्रतीक्षा थी वो अब तक दरबात में नहीं आई थी। दूसरी ओर पंक्ति व स्पर्द्धा का प्रचार देश भर में हो चुका था। प्रतिभा और प्रतिष्ठा की इस प्रतियोगिता को जीतने के लिए बेताब कवि दरबार में उमड़ते रहे और लौटाए जाते रहे।
कहते हैं कि उन दिनों चित्रकूट में एक निर्धन ब्राह्मण रहा करता था। जो लकड़ी काट कर व बेच कर अपने परिवार का उदर पोषण करता आ रहा था। उसकी चिंता अपनी दो पुत्रियों के गौने को ले कर थी। जिसमें उसकी निर्धनता आड़े आ रही थी। लकड़हारा नित्य सृजन करने वाले तुलसीदास जी को कई बार दया ब करुणा का परिचय देते देख चुका था। उनकी विद्वता और सज्जनता का अनुमान भी उसे था। उसने सोचा कि यदि रात दिन लिखने वाले बाबा जी एक पंक्ति लिख दें तो उक्त प्रतियोगिता जीती जा सकती है। वो अपने इस पक्के भरोसे के साथ चित्रकूट के घाट पर जा पहुँचा। गोस्वामी जी को प्रणाम कर उन्हें अपनी पीड़ा से अवगत कराया। साथ ही अपना मंतव्य भी बताया। गोस्वामी जी को इस प्रतियोगिता के पीछे कोई चाल होने का अंदेशा था, किंतु वे निर्धन ब्राह्मण की मदद से पीछे हटना भी नहीं चाहते थे। उन्होंने शर्त रखी कि वो उनकी दी हुई पंक्ति को स्वरचित बता कर दरबार में सुनाए। ईनाम लेकर अपने घर जाए और दायित्व पूर्ण करे। भूल कर भी किसी को उनके बारे में कभी न बताए। ब्राह्मण को अपनी निर्धनता से पार पाना था। वो तुरन्त इस शर्त को मान गया। तुलसीदास जी ने उसे एक पंक्ति लिख कर दी और समझाइश देते हुए विदा कर दिया।
उत्साह व आस से भरा लकड़हारा जैसे-तैसे दरबार के द्वार तक जा पहुँचा। उसकी दयनीय दशा को देख कर द्वार पर तैनात प्रहरियों ने उसे रोक लिया। संयोग से यह दृश्य कविवर रहीम ने देख लिया। उन्होंने उसे पास आने देने को कहा। संकोची लकड़हारा अब दरबार में था। उसने अपनी पंक्ति सुनाने की अनुमति माँगी। जैसे ही उसे अनुमति मिली, उसने गोस्वामी जी द्वारा दी गई पंक्ति सुना दी, जो इस प्रकार थी-
“जेहि रज मुनि नारी तरी, तेहि ढूँढत गजराज।।”
अर्थात प्रभु श्रीराम के चरणों की जिस धूल से गौतम ऋषि की शापित भार्या देवी अहिल्या का उद्धार हुआ, गजराज उस रज की खोज में है ताकि उसका भी उद्धार हो सके।
पंक्ति को सुनते ही रहीम कवि उछल पड़े। उन्होंने मसनद से उठ कर लकड़हारे को गले से लगा लिया। उनकी तलाश एक दोहे की पूर्णता के साथ पूरी हो चुकी थी। यह अलग बात है कि वे इस पंक्ति को न इस ब्राह्मण की मानने को तैयार थे, ना ही उसे तुलसीदास के रूप में स्वीकार करने को। पारखी निगाहें अब भी सच की तलाश में थीं। लकड़हारे को बंदीगृह में डालने का भय दिखाया गया। भयवश उसने सारा सच उगलते देर नहीं लगाई। कहा जाता है कि इसके बाद अकबर और रहीम कवि ने चित्रकूट पहुँच कर गोस्वामी जी के दर्शन किए और अपनी जिज्ञासाओं को शांत किया। यह प्रसंग साहित्य संसार के मूर्धन्य मनीषियों की विवेकशीलता का एक जीवंत प्रमाण है। जो “खग की भाषा खग ही जाने” वाली उक्ति को चरितार्थ करता है। साथ ही विभूतियों की पारखी वृत्ति और आत्मविश्वास को भी उजागर करता है। एक पंक्ति में संशय और दूसरी पंक्ति में समाधान का प्रतीक यह दोहा आज भी सोच की समरसता व साझा सृजन का एक नायाब उदाहरण है:-
“धूरि धरत गज शीश पर, कहि रहीम केहि काज?
जेहि रज मुनि नारी तरी, तेहि ढूँढत गजराज।।”
आशा है धर्म और संस्कृति के साथ-साथ यह दोहा और उसके सृजन से जुड़ा रोचक व प्रेरक कथानक साहित्य के प्रत्येक विद्यार्थी, शोधार्थी व पाठक के लिए स्मरणीय ही नहीं अनुकरणीय भी सिद्ध होगा। जय राम जी की।।
●संपादक/न्यूज़&व्यूज़●
श्योपुर (मध्यप्रदेश)
8959493240