वो अपने होकर भी अब अपने नहीं लगते,
वो अपने होकर भी अब अपने नहीं लगते,
फ़सानों में भी दिल के वो क़रीब नहीं लगते।
रूहानी सिलसिलों की जो महक थी दरमियाँ,
अब उसकी कोई शाख़ मेरे नसीब नहीं लगते।
हम इश्क़ को इबादत की तरह बरसाते रहे,
पर उनकी तर्ज़-ए-महफ़िल को रक़ीब नहीं लगते।
वो ऐसा टूटे कि खुद से भी दूर हो बैठे,
दरीचों में भी अब पहले-सी तिब नहीं लगते।
सच ये है दिल की सरहदों ने कब उन्हें छोड़ा,
मगर वो रूह में बसकर भी अपने नहीं लगते।