“हमारे पुरखों का घर मिट्टी था,
शीर्षक “हमारे पुरखों का घर मिट्टी था।
मैं शाज़ सफ़र में था,
रास्तों की धूल में लिपटा हुआ,
कि बरहेट “झारखंड” की मिट्टी-सी सादगी वाली
एक आदिवासी माता जी से मुलाकात हो गई।
बैठक यूँ शुरू हुई,
जैसे सदियों पुराने किस्से
फिर से सांस लेने लगे हों।
माता जी बोलीं—
“हमारे पुरखों का घर मिट्टी था,
और ठिकाना जंगल, नदी, नाले की छाया।
वक्त बदला…
मिट्टी के कच्चे झोंपड़े बने,
और अब पक्की दीवारें खड़ी हो गईं।
लेकिन बेटा…
जिस शांति की ठंडक
हमारे मिट्टी के घरों में थी,
वो इन पक्की दीवारों में कहाँ?”
मैं सुनता रहा…
उनकी यादों की आग में तपा हुआ।
वो बोलीं—
“सुबह उठते ही,
घर को गाय के गोबर से यूँ लीपना,
मानो कोई देवी प्रतिमा आकार ले रही हो।
चूल्हे पर गोबर की उबल—
उस पर पकता सादा भोजन,
और प्याज़–मिर्च की सुगंध…
जैसे पूरी दुनिया का स्वाद
एक मुट्ठी में समा गया हो।
हमारे यहाँ नाश्ते का रिवाज ना था,
और ना ही सुबह–सुबह पकवानों का शोर।
लेकिन ज़िंदगी…
कभी भारी नहीं लगी।
जो कठिनाई तब थी,
वो भी आसान लगती थी।
आज के लोग
सुविधाओं के महल में रहते हुए भी
ज़िंदगी को ढोते फिरते हैं।”
उनकी बातें दिल में उतरती चली गईं,
जैसे मिट्टी की दीवार में दरारों से
गर्माहट झाँकती हो।
मैं उठा…
तो महसूस हुआ—
कभी–कभी सफ़र राहों में नहीं,
लोगों की यादों में मिल जाता है।
(कवि शाहबाज आलम “शाज़” युवा कवि स्वरचित रचनाकार सिदो-कान्हू क्रांति भूमि बरहेट सनमनी निवासी)