शीर्षक "काश समय की नदी उलटी बहती"
शीर्षक “काश समय की नदी उलटी बहती”
रचनाकार शाहबाज आलम शाज़
बरसों बाद उस राह से गुज़रा मैं,
जहाँ बचपन ने अपनी कच्ची हथेलियों पर
मेरी छोटे- छोटे खुशियाँ संभाला था।
वो स्कूल… वो पोखर… वो धूप से चमकते खेत—
आज भी ऐसे लगे,
मानो मेरे वापसी की आहट पहचान
बचपन फिर से वापस आया हो।
मैं— शाज़-ए-सफ़र,
उस टूटे फर्श वाली कक्षा में गया,
जहाँ अक्षर किसी परियों की फुसफुसाहट की तरह
दिल में उतरते थे।
न जाने वो मास्टर साहब
जो डाँट के पीछे दुआ छुपा देते थे,
और साथी—
जिनके संग रोटी बाँटकर भी
दिल कभी आधा न हुआ,
आज किस मंज़िल की धूप में बिखर गए।
काश समय की नदी उलटी बहती,
तो मैं उस उम्र में लौटकर
उन्हीं कक्षाओं की मासूमियत
थोड़ा और जी लेता।
हाँ, बचपन गरीब था…
पर उसकी साँसों में सुकून की मिट्टी थी।
न रोज़गार की चिंता,
न पैसों का जाल—
बस सपनों की पतंग
और आसमान की भरोसे वाली हवा।
पर उम्र बढ़ी…
और सपने
धीरे–धीरे ख्वाबों की धुंध में खोते चले गए।
और आज…
उस महल की रातें भी याद आती हैं,
जहाँ कभी हँसी दीवारों से टकराकर
गीत बन जाती थी।
अब वही महल—
एक खंडहर-सी ख़ामोशी में डूबा है।
उस महल के मालिक अब इस दुनिया में नहीं…
पर उनके साथ बिताए हुए पल
आज भी ऐसे लगते हैं,
जैसे कल ही हाथ थामकर
हमने जिंदगी का एक सफ़र साथ जिया हो।
(शाहबाज आलम शाज़ युवा कवि स्वरचित रचनाकार सिदो-कान्हू क्रांति भूमि बरहेट सनमनी निवासी)