शीर्षक :- बेटी कब बड़ी हो गई
शीर्षक :- बेटी कब बड़ी हो गई
रचनाकार शाहबाज आलम “शाज़”
एक मुस्कान… और सब कुछ कह गई,
बेटी—वो नन्हीं कली—देखते ही देखते बड़ी हो गई।
जो कल तक हाथ थामकर डगमग चलती थी,
आज किसी और आँगन की रौनक बन गई।
समय ने करवट बदली…
और वही बेटी, बेटी से मां बन गई।
ये कैसा रिवाज है इस दुनिया का—
जिस घर को अपनी हंसी से सजाया,
जिस आँगन में अपने सपनों की चरखी घुमाई,
उसी घर में…
बेटी एक दिन मेहमान हो गई।
पर सच तो ये है—
बेटियाँ कभी जाती नहीं,
वो हर घर में उजाला छोड़ जाती हैं,
और अपने मायके के दिल में
हमेशा के लिए बस जाती हैं।
— कवि शाज़
शाहबाज आलम शाज़ युवा कवि स्वरचित रचनाकार सिदो-कान्हू क्रांति भूमि बरहेट सनमनी निवासी