आदि शंकराचार्य। ~ रविकेश झा।
जीवन की भागदौड़ में हम भीतर से जीना भूल जाते हैं और कैसे भी जीने लगते हैं। हमें पता ही नहीं चलता है कि हम जीवन में क्या कर रहे हैं, कभी हार तो कभी जीत कभी खुशी तो कभी गम। हम संघर्ष के मार्ग पर खड़े रहते हैं जीवन भर कभी संघर्ष से सुख मिला तो उसमें फंस जाते हैं तो कभी दुःख में, ऐसे ही जीते रहते हैं हम। और जो बेईमानी करता है उसे खुशी तो मिलती है लेकिन शांत नहीं हो पाता बेईमानी पर बेईमानी करते जाता है झूठ बोलना चोरी करना कैसे भी खुश रहने का मार्ग खोज लेते हैं। कोई संघर्ष को चुनता है तो शॉर्टकट लेकिन खुशी दोनों चाहता है यह याद रखना कोई करुणा ज्ञान शांति ईमानदारी से तो कोई कैसे भी पहुंच बना लेते हैं बेईमानी क्रोध घृणा झूठ कैसे भी उन्हें खुश रहना है। वो भीतर से जीना छोड़ देते हैं क्योंकि उन्हें बाहर कुछ मिल जाता है जिसे हम पहुंच कहते हैं बेईमानी का ग्रुप कहते हैं। धरती पर इतने महान विचारक बुद्ध पुरुष महा पुरुष जन्म लिए हैं जिनके विचार अद्भुत है जिसे अगर हम अपने जीवन में उतारे फिर हम भी शांत होंगे हार जीत से परे जायेंगे या ईमानदारी पूर्वक सफ़ल होंगे बाहर से भी भीतर से भी यही ध्यान मुख्य उद्देश्य है। हमें अपने जीवन पर पूरा ध्यान देना होगा हम किस ओर चल रहे हैं किसके लिए चल रहे हैं अंत तक क्या हाथ लगेगा सभी बातों को निरीक्षण करना होगा साहब। कृष्ण हुए बुद्ध हुए राम हुए इतने बुद्ध पुरुष हुए लेकिन हम फिर भी ऊपर नहीं उठ पाते घृणा क्रोध में फंस गए हैं, ऊपर से युग पर दोष लगा देते हैं कहते हैं कलयुग है इसीलिए ऐसा हो रहा है। क्रोध हिंसा लोभ मोह वासना किस युग में नहीं था इसीलिए तो इतने महा पुरुष भी जन्म लिए बुद्ध हुए जो मरे हुए को जिंदा किए यानी सोया हुआ को जगाना। हम युग को बांट देते हैं लेकिन व्यक्तियों को नहीं देखते राजा महाराजा अतीत में इतने हिंसक हुए चाहे वो राम का युग हो चाहे कृष्ण का चाहे कोई और युग हो चाहे अब। लेकिन अभी तो बहुत लोग जागे हैं जाग रहे हैं उसका कारण है बुद्ध पुरुष न कि भय इसको समझना होगा हम भय से झुक भी नहीं सकते बुद्ध यही तो किए जीवन भर अगर भगवान का भय होता तो इतने पाप नहीं बढ़ता चोरी वासना हिंसा नहीं होता क्योंकि मन ही ऐसा है अभी हम सोचेंगे कुछ थोड़े देर बाद कुछ और। जो सुधर रहे हैं वो या तो जान कर या कृतज्ञता के कारण भय से नहीं, भय होगा फिर परमात्मा को जन्म देना होगा मानना होगा कुछ वही से भिन्नता और घृणा क्रोध आरंभ होगा। पूरा एशिया बुद्ध के लिए पागल हुए और भी महान पुरुष के लिए भारत को सोने की चिड़ियां कहते थे सही है पूर्ण सत्य है। बुद्ध ने एक नया धर्म दिया ताकि लोग झुके करुणा प्रेम शांति अहिंसा से रहे और आपस में सब जुड़ कर रहे। कोई भी भगवान भिन्नता में रुचि नहीं लिए सबको एक समान से देखे और मानवता को स्थापित के लिए संघर्ष किए नमन है सभी महा पुरुष बुद्ध पुरुष को।
आज हम बात कर रहे हैं आदि शंकराचार्य जी के बारे में, आदि शंकराचार्य का जन्म 788 ईस्वी में केरल के काल्डी गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम शिवगुरु था और माता का नाम आर्यम्बा था। माना जाता है कि उनके जन्म के लिए उनके माता-पिता ने भगवान शिव की तपस्या की थी। चलिए बात करते हैं एक महान बुद्ध पुरुष के बारे में। आदि शंकराचार्य, भारतीय इतिहास के सबसे प्रतिष्ठित दर्शनिकों और धर्म शास्त्रीय में से एक, आठवीं शताब्दी में हिंदू धर्म के पुनरुत्थान में एक प्रमुख व्यक्ति थे। उनकी शिक्षाओं और दार्शनिक अंतर्दृष्टि ने अद्वैत वेदांत विचारधारा की नींव रखी, जो वास्तिवकता के अद्वैत स्वरूप पर बल देती है। वर्तमान केरल के छोटे से गांव कलाडी में जन्मे आदि शंकराचार्य ने छोटी उम्र से ही असाधारण बौद्धिक क्षमता का प्रदर्शन किया। आध्यात्मिक साधकों को प्रभावित करता रहा। आदि शंकराचार्य की यात्रा आध्यात्मिक ज्ञान की गहरी लालसा से शुरू हुई। आठ वर्ष की आयु तक, उन्होंने वेदों में पारंगत हो गए थे, और सत्य की खोज ने उन्हें गुरु की खोज में घर छोड़ने के लिए प्रेरित किया। अंततः उन्हें अपने गुरु, गोविंपाद मिले, जिन्होंने उन्हें अद्वैत वेदांत के मार्ग पर अग्रसर किया। उनका समर्पण और प्रतिभा स्पष्ट थी, और वे शीघ्र ही जटिल दार्शनिक अवधारणाओं की अपनी गहन समझ के लिए जाने जाने लगे। आदि शंकराचार्य के प्रारंभिक जीवन ने उनके परवर्ती कार्यों के लिए मंच तैयार किया, जिसने भारत के आध्यात्मिक परिदृश्य को बदल दिया। अपने गुरु गोविंदपाद के मार्गदर्शन में, उन्होंने अद्वैत वेदांत के दर्शन का गहन अध्ययन कर लिए थे वही उन्हें जीवंत रखने में मदद किए जो उन्हें महान विचारक के रूप में खड़ा किया। आदि शंकराचार्य भारत भर की यात्राएं विभिन्न विचारधाराओं के विद्वानों के साथ दार्शनिक सिद्धांतों पर वाद विवाद और चर्चा करने के उनके प्रयासों से चिह्नित थीं। ज्ञान और सत्य की उनकी खोज ने उन्हें उपनिषदों, भागवत गीता और ब्रह्म सूत्र सहित पवित्र ग्रंथों पर कई भाष्य लिखने के लिए प्रेरित किया। आदि शंकराचार्य का प्रमुख योगदान अद्वैत वेदांत की व्याख्या और प्रचार था अद्वैत वेदांत का अर्थ है, अद्वैत वेदांत दर्शन की एक शाखा है, जिसका अर्थ है ‘दो नहीं’। इसका मूल सिद्धांत है कि ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है, यह संसार मिथ्या है, और जीव (आत्मा) ब्रह्म से भिन्न नहीं है। यह आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित एक दार्शनिक और मठवासी परंपरा है, जिसके अनुसार जीव अज्ञान के कारण स्वयं को ब्रह्म से अलग समझता है, लेकिन ज्ञान के माध्यम से वह अपनी वास्तविक एकता को पहचान सकता है।
यह दर्शन मानता है कि जीवात्मा (आत्मा) और परम सत्य (ब्रह्म) एक ही हैं। उनकी शिक्षाएं द्वैत की धारणाओं को चुनौती देती हैं और व्यक्तियों को अपने वास्तिविक स्वरूप को समझने का आग्रह करती हैं। शंकराचार्य ने अद्वैत वेदांत दर्शन एक अविभाजित वास्तिवकता, जिसे ब्रह्म कहा जाता है, की अवधारणा पर केंद्रित है। उन्होंने प्रतिपादित किया कि संसार एक भ्रम या माया है, और वास्तविक आत्मा या आत्मा ब्रह्म के समान है। इस क्रांतिकारी विचार ने प्रचलित मान्यताओं को चुनौती दी और आध्यात्मिकता पर एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। उनके कार्यों ने शास्त्रों की व्यापक समझ प्रदान की, जिससे वे आम लोगों के लिए सुलभ हो गए। प्रत्यक्ष अनुभव और आत्म साक्षात्कार पर आदि शंकराचार्य के ज़ोर ने कई लोगों को आत्मनिरीक्षण और ध्यान के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया। आदि शंकराचार्य का हिंदू धर्म पर गहरा और दूरगामी प्रभाव था। उन्होंने भारत के विभिन्न भागों में चार प्रमुख मठों की स्थापना की, जिन्होंने हिंदू परंपराओं के एकीकरण और संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ये मठ आज भी शिक्षा और आध्यात्मिक मार्गदर्शन के केंद्र बने हुए हैं। मठवासी व्यवस्था को संगठित करने और अद्वैत वेदांत की शिक्षाओं के प्रसार में उनके प्रयासों ने हिंदू धर्म को ऐसे समय में पुनर्जीवित और सुदृढ़ करने में मदद की जब उसे धार्मिक परंपराओं से गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा था। अपनी शिक्षाओं के संरक्षण के प्रचार के प्रयास में, शंकराचार्य ने पूरे भारत में चार मठों की स्थापना की। दक्षिण ने श्रृंगेरी मठ, पश्चिम में द्वारका मठ, पूर्व में पुरी मठ, उत्तर में ज्योतिमठ। आदि शंकराचार्य की विरासत उनके लेखन और उनके द्वारा स्थापित संस्थाओं के माध्यम से कायम है। सभी प्राणियों की एकता और भौतिक जगत की मायावी प्रकृति पर उनका ज़ोर, आधात्म और विज्ञान के अंतर्संबंध की खोज करने वाले आधुनिक साधकों के साथ प्रतिध्वनित होता है। आज, उनकी शिक्षाएं लाखों लोगों को सतही मतभेदों से परे देखने और उस एकता को पहचानने के लिए प्रेरित करती हैं जो समस्त अस्तित्व में अंतर्निहित है। उनका जीवन और कार्य आध्यात्मिक पथ पर चलने वालों के लिए एक मार्गदर्शक प्रकाश बने हुए हैं। आदि शंकराचार्य का भारतीय आध्यात्मिकता और संस्कृति पर गहरा प्रभाव है। उनकी शिक्षाएं धार्मिक सीमाओं से परे थीं और भारत के विविध आध्यात्मिक परिदृश्य में एकता की भावना का संचार करती थीं। उनकी दार्शनिक अंतर्दृष्टि दुनिया भर में लाखों लोगों को प्रेरित करती रहती है। उनकी विरासत का उत्सव प्रतिवर्ष उत्सवों और समारोहों के माध्यम से मनाया जाता है, जहां अनुयायी उनके योगदान को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। उनकी शिक्षाएं की निरंतर प्रासंगिकता उनकी दूरदर्शिता की स्थायी शक्ति का प्रमाण है।
अगर उनकी शिक्षा पर बात करे तो आदि शंकराचार्य अपनी गहन शिक्षाओं के लिए प्रसिद्ध हैं। आदि शंकराचार्य ने आत्म साक्षात्कार प्राप्त करने के लिए ज्ञान ध्यान और नैतिक जीवन के मार्ग की वकालत की। उन्होंने अज्ञानता को दूर करने और अपने वास्तिविक स्वरूप को जानने के साधन के रूप में ज्ञान योग, ज्ञानयोग के महत्व पर बल दिया। अपनी शिक्षाओं की गढ़ प्रकृति के बाबजूद, आदि शंकराचार्य ने दैनिक जीवन के लिए व्यवहारिक मार्गदर्शन प्रदान किया। उन्होंने वैराग्य और विवेक के महत्व पर बल दिया और व्यक्तियों को भौतिक लक्ष्यों की अपेक्षा आध्यात्मिक लक्ष्यों को प्राथमिकता देने के लिए प्रोत्साहित किया। मुख्यत: ज्ञान योग के समर्थक होने के बाबजूद, आदि शंकराचार्य ने भक्ति और कर्म के महत्व के नकारा नहीं। उनका मानना था कि भक्ति और सद् कर्म मन को शुद्ध कर सकते हैं और उसे उच्च ज्ञान की प्राप्ति के लिए तैयार कर सकते हैं। संन्यासी बनने के बाद भी, उन्होंने अपनी मां का वादा निभाया और विरोध के बावजूद उनके अंतिम संस्कार के लिए घर के सामने ही उनकी चिता सजाई। इसके बाद से केरल के काल्डी गांव में घर के सामने अंतिम संस्कार करने की परंपरा शुरू हुई। कहा जाता है कि उन्होंने कई महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की, जिसमें ब्रह्मसूत्र पर भाष्य शामिल है। मात्र 16 साल की उम्र में उन्होंने 100 से ज्यादा ग्रंथों की रचना की थी। तीन साल की उम्र में ही उन्होंने मलयालम भाषा सीख ली थी और वेदों का अध्ययन कर लिया था। पांच साल की उम्र में उनका उपनयन संस्कार हुआ और उन्होंने आचार्य के पास शिक्षा ग्रहण की, जहां उन्होंने मात्र दो वर्षों में वह ज्ञान प्राप्त कर लिया जिसमें दूसरों को 20 साल लगते थे।
ओशो कहते हैं।
मुझे आदि शंकराचार्य के बारे में एक सूंदर घटना का स्मरण आता है, वे पहले शंकराचार्य थे, जिन्होंने चार मंदिरों का निर्माण करवाया था–चारों दिशाओं में बैठे चार शंकराचार्यों के लिए चार गद्दियां। संभवत: पूरी दुनिया में वह उस वर्ग के दार्शनिको में सबसे प्रसिद्ध हैं जो कि यह सिद्ध करने में लगे हैं कि सब माया है। निसंदेह वह एक महान तार्किक थे, क्योंकि वह निरंतर दूसरे दार्शनिकों को पराजित करते आए थे उन्होंने देश भर में घूम कर बाकी सभी दर्शनशास्त्र के विद्यालयों को हरा दिया। उन्होंने अपने दर्शनशास्त्र को एकमात्र उचित दर्शन के रूप में स्थापित कर दिया। वह एकमात्र दृष्टिकोण: कि सब कुछ झूठ है, सब माया है।
शंकराचार्य वाराणसी में थे। एक दिन, सुबह-सुबह–अभी अंधेरा ही था, क्योंकि हिन्दू पंडित सूरज उगने से पहले ही नहा लिया करते हैं–उसने स्नान किया। और जब वो सीढ़ियों से ऊपर आ ही रहा था, एक आदमी ने उसको छू लिया और ऐसा गलती से नहीं हुआ था यह उसने जानबूझ कर किया था, “क्षमा करें मैं क्षुद्र हूं, आप को गलती से छू लिया परंतु अब आप को स्वच्छ होने के लिए दौबारा स्नान करना होगा।”
शंकराचार्य क्रोधित हो गए। वे बोले, “यह तुमसे गलती से नहीं हुआ, जिस तरीके से तुमने ऐसा किया; उससे साफ़ पता चलता है कि यह तुमने जान-बूझ के किया था। तुम्हे नरक भोगना होगा।”
वह व्यक्ति बोला, “जब सब-कुछ माया है, तो लगता है अवश्य ही नरक सत्य होगा।” शंकराचार्य तो यह सुन कर स्तभ्ध रह गए।
वह व्यक्ति बोला, “इससे पहले कि तुम स्नान करने जाओ, तुम्हे मेरे कुछ प्रश्नों का उत्तर देना होगा। यदि तुमने मेरे उत्तर नहीं दिए तो अब जब भी तुम स्नान कर के आओगे मैं तुम्हारा स्पर्श कर लूंगा।”
उस समय वहां एकांत था, सिवाय उन दोनों के कोई नही था, तो शंकराचार्य ने कहा, “तुम बड़े अजीब व्यक्ति हो। क्या हैं तुम्हारे प्रश्न?”
उसने कहा, “मेरा पहला प्रश्न है: क्या मेरा शरीर भ्रम है? क्या आपका शरीर भ्रम है? और यदि दो भ्रम शरीर एक दुसरे का स्पर्श कर लेते हैं तो, इसमें आपत्ति क्या है? क्यों आप एक और स्नान लेने के लिए जा रहे हो? जो उपदेश आप देते हो उसका पालन स्वयं ही नहीं करते । एक माया के जगत में, क्या एक अछूत और ब्राह्मण में कोई भेद हो सकता है?- पवित्र और अपवित्र में ?–जब दोनों ही भ्रम हैं, जब दोनों उसी एक तत्व के बने हो जिनके सपने बने होते हैं? तब कैसा उपद्रव?”
शंकराचार्य, जो कि बड़े-बड़े दार्शनिको को पराजित कर रहे थे, इस सरल से व्यक्ति को कोई उत्तर नहीं दे पाए क्योंकि जो भी उत्तर वे देते वो उनके खुद के दर्शन के विरुद्ध होता। यदि वे कहते हैं कि यह भ्रम है, तब इसमें क्रोधित होने जैसा कोई प्रश्न ही नहीं उठता। यदि वे कहते कि ये सत्य है, तब वे इस तथ्य को स्वीकार करते कि शरीर सत्य है… पर तब एक समस्या है। यदि मनुष्य का शरीर सत्य है, तब पशुओं का शरीर, पेड़ो का शरीर, ग्रहों का शरीर, सितारों… सब सत्य है।
और उस व्यक्ति ने कहा, “मैं इस बात से अवगत हूं की आपको इसका उत्तर नहीं पता–यह आपके सारे दर्शनशास्त्र को नष्ट कर देगा। मैं आपसे एक और प्रश्न करता हूं: मैं एक क्षुद्र हूं, अछूत हूं, अपवित्र हूं, मेरी अपवित्रता कहां है–मेरे शरीर में या कि मेरी आत्मा में? मैंने आपको यह घोषणा करते सुना है कि आत्मा पूर्ण और शाश्वत रूप से पवित्र है, और उसे अपवित्र करने का कोई उपाय नहीं है; तो दो आत्माओं के बीच भेद कैसे हो सकता है? दोनों ही पवित्र हैं, पूर्णता, पवित्र और अपवित्रता की कोई सीमा नहीं होती–कि कोई ज्यादा पवित्र हो और कोई कम। तो हो सकता है कि मेरी आत्मा ने आपको अपवित्र कर दिया है और आपको दूसरा स्नान करना पड़ रहा है?
अब यह और भी कठिन था। लेकिन वह कभी भी इस तरह के परेशानी में नहीं पड़ा था– यथार्थ, वास्तविक, एक तरह से वैज्ञानिक। बजाय शब्दों से तर्क करने के, उस क्षुद्र ने ऐसी स्तिथि खड़ी कर दी कि अदि शंकराचार्य को अपनी हार स्वीकार करनी पड़ी। और क्षुद्र ने कहा, “तो आपको दुबारा स्नान करने की आवश्यकता नहीं है, वैसे भी वहां कोई नदी नहीं है, मैं भी नहीं, आप भी नहीं; सब स्वप्न ही तो है। आप मंदिर में जाएं–और वह भी एक स्वप्न है–और परमात्मा से प्रार्थना करें, वह भी एक स्वप्न है। क्योंकि वह भी मन द्वारा खड़ा किया हुआ एक प्रक्षेपण है जो कि भ्रम है, और एक भ्रमित मन कुछ भी सत्य प्रक्षेपित नहीं कर सकता।
आदि शंकराचार्य महान आत्मा हो गए सबके लिए जीने लगे इतने संघर्ष के बाद भी भिन्नता में रूचि नहीं लिए आदि शंकराचार्य आज के शंकराचार्य के तरह नहीं थे आज तो धर्म की बात होती है वो लोकधर्म की कल्पना धर्म की कैसे भी मानो ये ही अति उत्तम है और कोई नहीं मानना ही होगा। शास्त्र में कचरा भी है और अमृत भी लेकिन हम जागरूकता से नहीं पढ़ते इसलिए धर्म के ओर बढ़ रहे हैं ना कि आध्यात्मिकता के ओर। हमें आध्यात्मिकता के ओर बढ़ना होगा। लेकिन सबको आध्यात्मिक गुरु बनना है चाहे वो किसी एक धर्म की बात क्यों न करे धर्म की ही बात क्यों ना करे लेकिन आध्यात्मिक नेता स्वयं को मान कर रहेंगे ही।
हमें सभी महा पुरुष बुद्ध पुरुष की जीवनी पढ़नी चाहिए ताकि हमारे जीवन में पूर्ण स्पष्टता आए और हम भी संतुष्ट और शांत मौन भरा जीवन जिए। इसके लिए ध्यान और जागरूकता से मित्रता करनी होगी।
इतने ध्यान से पढ़ने और सुनने के लिए हृदय से आभार धन्यवाद सभी को प्रणाम।
धन्यवाद,
रविकेश झा,
🙏❤️😊,