साहेबगंज का "पहाड़" सिर्फ पत्थरों का ढेर नहीं,
शीर्षक:- साहेबगंज का “पहाड़” सिर्फ पत्थरों का ढेर नहीं
कवि शाज़ ✍️
गंगा के घाट से उठती है एक साँस,
जो पहाड़ों के सीने में उतर जाती है,
वही साहिबगंज है —
जहाँ हर पत्थर में सदियों की कहानी बस जाती है।
बरसात में जब बादल राजमहल पहाड़ियों को चूमते हैं,
तो गुमानी नदी गुनगुनाती है,
मोती झरना मोतियों-सा झरता है,
शिवगादी मंदिर सदियों से गूंजता है,
और कन्हैया स्थल की मिट्टी में श्रद्धा महकती है।
फॉसिल पार्क की चट्टानों पर
धरती ने अपनी यादें उकेरी हैं,
तेलियागढ़ी किला अब भी प्रहरी-सा खड़ा है,
सिंघी दालान की खामोशी इतिहास बोलती है,
और सकरीगली घाट से बहती हवा
अतीत की कहानियाँ सुनाती है।
जब कोई स्थानीय या पर्यटक
भोगनाडीह क्रांति भूमि या पंचकठिया क्रांति स्थल पहुँचता है,
तो ऐसा लगता है मानो आज भी
वीरों की पुकार गूंज रही हो,
वो धरती अब भी वीरगति का कंपन महसूस करती हो।
और जब कोई जिलेबिया घाटी का भ्रमण करता है,
तो ऊपर से ही गंगा की कलकल धारा
मानो कहती है —
“यह वही भूमि है जहाँ इतिहास साँस लेता है।”
यहाँ के जंगलों में अब भी
सिदो-कान्हू की पुकार गूँजती है,
जहाँ विद्रोह नहीं — आग जली थी
आज़ादी की पहली लौ बनकर।
मंगल हाट की जमा मस्जिद में
यहाँ के लोगों की रौनक बसती है,
महुआ की खुशबू से धरती महकती है,
और हर लोकगीत की धुन में
इन पहाड़ियों की आत्मा धड़कती है।
और इसी धरती को पूर्णता देती हैं—
बरहरवा का बिंदुबासनी मंदिर,
जहाँ आस्था हर सुबह नया सूर्योदय रचती है,
और उधवा पक्षी अभयारण्य,
जहाँ गंगा-झीलों के ऊपर उड़ते परिंदों की पंख-धुन
साहिबगंज के आसमान में रंग भर देती है।
साहिबगंज का पहाड़ —
सिर्फ पत्थरों का ढेर नहीं,
यह इतिहास का दिल है,
जिसे भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण ने
राष्ट्रीय भूवैज्ञानिक स्मारक घोषित किया है।
यह वही धरती है,
जो लाखों बरस पुरानी है,
पर हर सुबह नई लगती है…
हर बार — जब कोई इसे अपना कहता है।
(शाहबाज आलम “शाज़”, युवा कवि,
स्वरचित रचनाकार
सिदो-कान्हू क्रांति भूमि, बरहेट,
सनमनी निवासी)