रमण महर्षि: एक साधक का जीवन परिचय। ~ रविकेश झा।
हमें जीवन मिला है क्यों मिला है किससे मिला है ये अगर हम जान लेते हैं फिर हम क्रोध मोह लोभ वासना सबसे मुक्त हो सकते हैं। हमारे पास अभी एक जीवन है अगर हम चाहे तो जीवन को मधुर बना सकते हैं या चाहे तो नर्क ये हमारे पर निर्भर है, या हम क्रोधी या करुणा या प्रेम या घृणा या वासना या मैत्रेय सब हमारे मन पर निर्भर है। हम एक हो सकते हैं अभी हम भिन्न में अटके हुए हैं और यही कारण है जो हमें भीतर से दूर रखता है और बाहर से कनेक्ट करता है। कौन करता है मन अगर यही मन को हम जान लेते हैं फिर हम शांत हो सकते हैं रुक सकते हैं स्थिर होकर शून्यता और पूर्णता प्राप्त कर सकते हैं साहब। हमारे अतीत में इतने बुद्ध पुरुष महा पुरुष हुए हैं जो हमें जगाने के लिए अपने ध्यान सूत्र दिए लेकिन हम उन हीरा को छोड़ कर कचरा भरने में लगे हुए हैं लेकिन कब तक जब तक मृत्यु न घेर ले। नहीं साहब हम भी कुछ हो सकते हैं हम भी जाग सकते हैं हम भी सफ़ल हो सकते हैं और भीतर से जी सकते हैं। जो भीतर से जीना सीख लिया वो आनंदमय में रहेगा वो खुशी पर निर्भर नहीं रहेगा बल्कि निर्भर ही नहीं रहेगा क्योंकि वो निर्भरता को ही समाप्त कर देगा। लेकिन उसके लिए उसे ध्यान को चुनना होगा शांति को चुनना होगा। वही बात मैं ऊपर किया हूं कि हमारे हाथ में हमें निर्णय लेना है कि हमें नर्क में जीना है या स्वर्ग में स्वर्ग भी हम अपने जीवन में ला सकते हैं। भीतर से जो जीने लगेगा वो स्वर्ग में रूपांतरण हो जायेगा और शरीर वाले कर्म और कर्मफल के कारण नर्क में रहेगा चाहे वो सोचे या नहीं लेकिन वास्तविक सत्य यही है। हमारे अंदर पूरा अस्तित्व है लेकिन हम बाहरी जीवन के कारण स्वयं से कनेक्ट नहीं हो पाते इसी कारण हम दुःख सुख मोह माया सबमें अटके हुए हैं हमें जागना होगा हमें स्वयं चुनना होगा हमें स्थिर होना होगा ताकि जीवन में पुष्प खिल सके आनंद की वर्षा हो सके। जागना तो हमें स्वयं होगा सब बुद्ध पुरुष यही कहेंगे हमें स्वयं को मौका देना होगा स्वयं को मौका देना भी आसान नहीं है उसके लिए हिम्मत चाहिए साहसी होना होगा लेकिन उसके लिए मन को एक दिशा देना होगा साहब। हमें दिशा पर ध्यान देना होगा हम किस दिशा में जा रहे हैं या तो हम धर्म जात के कारण रुकेंगे या स्वयं के स्वीकृति के कारण। जो स्वयं को जगाना ही नहीं चाहता उसे मन में कुछ और है वो वही करेगा चाहे आप कितना भी कोशिश कर लो लेकिन वो जागेगा नहीं। जागेगा कब जब उसे बाहरी कड़ियां में अति से गुजरेगा बाहरी भौतिक जब उसे लगने लगेगा कि व्यर्थ है सब लेकिन उसके लिए उसे ध्यान को चुनना ही होगा। हो सकता है वो कोशिश करे लेकिन परिवार के कारण धन के कारण समय न दे पाए लेकिन अगर उसे परमात्मा का नशा चढ़ेगा फिर वो स्वयं के प्रति कृतज्ञता रखकर ध्यान को चुनेगा स्वीकृति देगा। मैं वही बात कर रहा हूं चुनना स्वयं को मौका देना स्वीकृति देना बिना भय के स्वयं चुनना जागरूक होना ये सब हमें स्वयं करना होगा। कारण तो रहेगा दुःख या सुख या अति के कारण या अति न हो रहा है गरीबी के कारण लेकिन माहोल भी होना चाहिए अवचेतन मन वाले भी चेतन मन तक पहुंचना चाहते हैं लेकिन भय और अशिक्षित के कारण पहुंच नहीं पाते। अवचेतन मन को चेतन तक लाने के बाद ही पूर्ण ज्ञान प्राप्त होगा, चेतन वाले को भी पूरा मन को जानने के बाद अवचेतन में आना होगा। वही बुद्ध कह रहे हैं अगर आस्तिक होना है अगर परमात्मा को प्राप्त करना है स्वयं को जानना है तो जानने के ओर बढ़ो चेतन मन को मज़बूत करो नास्तिक हो जाओ लेकिन जब सब कुछ दिखने लगे सब क्लीयर हो जाए फिर नास्तिकता को देखने लगो फिर आप आस्तिकता और नास्तिकता के बीच संतुलन बना लोगे शून्य हो जाओगे फिर हम स्वयं परमात्मा हो जाओगे। आस्तिक कहेगा परमात्मा हैं नास्तिक कहेगा नहीं है दोनों मान्यता में जी रहा है एक हां में खुश है एक ना में हमें नास्तिकता पर दृष्टि देना होगा तभी हम करुणा और आस्तिकता में शामिल होंगे। आस्तिकता में आना ही होगा या मौन में दोनों हमारे ऊपर निर्भर है।
हमें कुछ साबित नहीं करना है न आस्तिकता को न नास्तिकता को बल्कि हमें जागना है हम ही हैं जो नास्तिक बन जाते हैं और आस्तिक बन जाते हैं। या चेतन या अवचेतन अब हमें दोनों के बीच द्रष्टा होना है देखना है कौन नास्तिक है और कौन आस्तिक फिर हम चुनाव नहीं करेंगे बस परमात्मा में खो जायेंगे क्योंकि वो देखने वाले को देख लिया दृश्य अब दृष्टा हो गया। पहले नास्तिक था कुछ दृश्य था लेकिन उसमें परमात्मा नहीं दिख रहा था क्योंकि वही दृश्य को देख रहा था अब दृश्य को भी देख लिया और दृश्य को देखने वाले को भी अब वो पूर्णता में शामिल हो गया परफेक्ट हो गया साहब। आज बात कर रहे हैं महान दार्शनिक और आध्यात्मिक गुरु रमण महर्षी जी के बारे में जो बचपन से ही ध्यान में प्रवेश कर गए जो अंत तक सबको जागते रहे सबको शांति प्रेम करुणा की शिक्षा दीं ताकि सभी उठ जाए और परमात्मा को प्राप्त कर सकें। एक प्रतिष्ठित भारतीय संत, रमण महर्षी, अपनी गहन शिक्षाओं और विश्व भर के आध्यात्मिक साधकों पर उनके प्रभाव के लिए विख्यात हैं। 1879 में भारत के तमिलनाडु में जन्मे, वे आत्म साक्षात्कार और अद्वैत के प्रतीक बन गए। उनका जीवन और शिक्षाएं अनागिनित लोगों को उनकी आध्यामिक यात्रा पर प्रेरित करती रहती है। रमण महर्षी जिनका मूल नाम वेंकटरमन अय्यर था, उनमें आध्यामिकता और प्रारंभिक झुकाव था। 16 वर्ष की आयु में, आत्म अन्वेषण के एक गहन अनुभूति के ओर अग्रसर किया। इस जागृति ने उन्हें घर छोड़कर अरुणाचल के पवित्र पर्वत की यात्रा करने के लिए प्रेरित किया, जहां उन्होंने अपना शेष जीवन बिताया।
अरुणाचल में अपने प्रारंभिक वर्षों के दौरान, वे गहन ध्यान और आत्म अन्वेषण में लगे रहे, एकांत और मौन में रहे। उनके शांत स्वभाव और आध्यात्मिक गहराई ने कई साधकों को उनकी उपस्थिति के लिए आकर्षित किया। छोटी उम्र से ही, गहन आत्मनिरीक्षण और आधात्मकिता के प्रति लगाव रहा जिसे हम संकल्प कहे वही ठीक रहेगा वह चुने थे स्वयं, उन्होंने सब कुछ ध्यान में जोर लगाया ताकि ज्ञान की प्राप्ति हो सके। रमण महर्षी की शिक्षाएं आत्म अन्वेषण के अभ्यास पर केंद्रित हैं, जिसका सार इस प्रश्न में प्रसिद्ध रूप से व्यक्त किया गया है, मैं कौन हूं?, यह विधि व्यक्तियों को अपने भीतर झांकने और अहंकार व मन से परे अपने वास्तिविक स्वरूप की खोज करने के लिए प्रोत्साहित करती है। उनका दर्शन अद्वैत वेदांत से मेल खाता है, को अद्वैत और ब्रह्मांड के साथ एकत्व की प्राप्ति पर बल देता है। उनका मानना था कि मुक्ति या ज्ञानोदय कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिसे प्रपात किया जा सके, क्योंकि यह अस्तित्व की स्वाभाविक अवस्था है। उनकी सरल किंतु गहन शिक्षाओं ने दुनिया भर की कई आध्यात्मिक परंपराओं और विचारकों को आकर्षित और प्रभावित किया है। अपने पूरे जीवन में, रमण महर्षि ने जीवन के सभी क्षेत्रों के साधकों का स्वागत किया और मौन और न्यूनतम वार्तालाप के माध्यम से ज्ञान प्रदान किया। उनकी शिक्षाओं को कई पुस्तकों में संकलित किया गया, जिससे उनका संदेश विश्व स्तर पर फैलाम कार्ल जंग और पॉल ब्रंटन सहित कई प्रसिद्ध आध्यात्मिक नेताओं और दार्शनिकों ने आध्यात्मिकता की अपनी समझ पर उनके प्रभाव को स्वीकार किया। उनकी विरासत तिरुवन्नामलाई स्थित रमण आश्रम के माध्यम से जीवित है, जो आध्यात्मिक विकास चाहने वालों के लिए एक तीर्थस्थल बना हुआ है। यह आश्रम ध्यान चिंतन और उनकी शिक्षाओं के अध्ययन का केंद्र है। रमण महर्षी का प्रभाव उनके जीवनकाल से आगे तक फैला हुआ है, जिसने अनगिनीत व्यक्तियों को उनकी आध्यात्मिक यात्रा के लिए प्रेरित किया है। 20वीं सदी के पूज्यनीय संत, रमण महर्षी ने दुनिया भर के आध्यात्मिक साधकों पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है। आत्म अन्वेषण केवल एक बौद्धिक अभ्यास नहीं है, बल्कि अपने अस्तित्व की एक गहन, अनुभावत्मक जांच है। इसका उद्देश्य शरीर और मन के साथ अपनी झूठी पहचान को भंग करना और उस सर्वव्यापी जागरूकता को प्रकट करना है जो व्यक्ति का वास्तविक स्वरूप है।
रमण महर्षी का अपने शिष्यों के साथ संवाद सरलता और गहराई से भरा था। उनकी प्रतिक्रिया अक्सर सांसारिक विकर्षणों में उलझने के बजाय स्वयं पर ध्यान केंद्रित करने की कोमल यादों के रूप में आती थीं। महर्षि के दर्शन करने वाले कई लोगों ने उनके साथ संवादों के माध्यम से गहन परिवर्तनों का अनुभव किया। उनकी मात्र उपस्थिति अक्सर शब्दों से कहीं अधिक संदेश देती थी, जिससे व्यक्ति ऐसी अंतर्दृष्टि और अनुभूतियों की ओर अग्रसर होता था जिसने उसके जीवन पथ को रूपांतरण कर दिया। ये वार्तालाप अक्सर गलत पहचानों को त्यागने और उस शुद्ध जागरूकता को अपनाने पर केंद्रित होते थे जो सभी प्राणियों का सार है। रमण महर्षी की शिक्षाएं सांस्कृतिक और भौगोलिक सीमाओं से परे हैं और विविध आध्यात्मिक परंपराओं को प्रभावित करती हैं। सरलता और प्रत्यक्षता में निहित आध्यामिकता के प्रति उनका दृष्टिकोण आज भी वैश्विक दर्शकों को आकर्षित कर रहा है। कई समकालीन शिक्षक और आध्यात्मिक नेता रमण महर्षी की अंतर्दृष्टि से प्रेरणा लेते हैं। स्वयं के प्रत्यक्ष अनुभव पर उनका ज़ोर आधुनिक आध्यात्मिक साधना की आधारशिला बना हुआ है। रमण महर्षी की विरासत सत्य की शाश्वत प्रकृति और सच्ची आत्म खोज की परिवर्तनकारी शक्ति का प्रमाण है। रमण महर्षी और उनके अनुयायियों के बीच संवाद आध्यात्मिक जागृति के मूल में एक अमूल्य झलक प्रदान करते हैं। उनकी शिक्षाएं साधकों को उनके वास्तिविक स्वरूप की प्राप्ति की ओर मार्गदर्शन करती रहती हैं, और स्वयं तथा ब्रह्मांड की गहरी समझ को बढ़ावा देती हैं।
रमण महर्षी ने ध्यान को बढ़ावा दिया ताकि लोग स्वयं से जुड़ सके और व्यक्तिगत लाभ हानि से परे उठ सके इस बात पर भी उन्होंने ज़ोर दिया। मैं कौन हूं पर ध्यान केंद्रित किए कोई भी प्रश्न लेकर आता था तो सबके पहले यही कहते थे स्वयं को जानो मैं कौन हूं इस पर ध्यान केंद्रित करो, क्या तुम वस्त्र हो क्या भोजन हो क्या शरीर हो क्या मन हो सबको देखते जाओ ध्यान की चाकू चलाओ और देखो अंत में क्या बचता है जो बचता है और बचा कौन रहा है इस पर ध्यान केंद्रित करो। वो प्रश्न के साथ उत्तर भी बता देते थे अगर कोई प्रश्न पूछता था तो कि मैं कौन हूं अंत में तो आत्म बचता है परमात्मा लेकिन उत्तर को तोता के कॉपी पेस्ट करने में लग जाते हैं। यह भी गलत है थोड़े देर ध्यान में बैठ कर प्रश्न उत्तर को मिक्स करके जीने लगते हैं और अंत तक दुखी ही रहते हैं साहब। उनके विचार अमूल्य है वो कैंसर से पीड़ित थे लेकिन आत्मा को कुछ नहीं हुआ उनके शरीर में रोग था लेकिन उन्हें कुछ नहीं हुआ उन्हें कोई बीमारी स्पर्श न कर पाया वो अंत में समाधि ले लिए। उनमें मानवता समानता प्रेम करुणा सब पूर्ण भरा हुआ था वो सबको जागृत दिशा ओर ले जाते थे। देश विदेश से लोग आते थे कुछ दर्शन के अभिलाषा से तो कुछ संदेह और प्रश्न के लिए, लेकिन सब उत्तर लेकर ही जाते थे सबको उन्होंने आध्यात्मिक दृष्टि दिया सबको उन्होंने जागरूकता का रास्ता अपनाने को कहा।
ओशो कहते हैं।
“ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्होंने महर्षि रमण का अनुसरण किया है। उनकी शिक्षाएँ बहुत सरल थीं – वे एक साधारण व्यक्ति थे, अशिक्षित, ज्ञानी नहीं। वे केवल 16 वर्ष की आयु में अपने घर से भाग निकले थे। वे इसलिए भागे क्योंकि उनके पिता की मृत्यु हो गई थी। जब पूरा परिवार रो रहा था और चीख रहा था, और पड़ोसी शव को अंतिम संस्कार के लिए ले जाने की तैयारी कर रहे थे, तब किसी ने भी यह नहीं देखा कि रमण गायब हो गए हैं। अपने पिता की मृत्यु का अनुभव रमण के मन में एक जबरदस्त क्रांति बन गया। वे केवल सत्रह वर्ष के थे, एक गरीब परिवार के इकलौते पुत्र थे, और वे पहाड़ों पर भाग गए। वे अपना पूरा जीवन अरुणाचल के पहाड़ पर रहे जहाँ उन्होंने कुछ नहीं किया, बस बैठकर अंदर देखते रहे। उन्होंने कभी किसी से कुछ नहीं माँगा। उनका कोई गुरु नहीं था, उनका मार्गदर्शन करने वाला कोई नहीं था, लेकिन बस चुपचाप बैठकर अपने मन को देखते हुए, वे अपने मन के पार चले गए और उन्होंने स्वयं को जान लिया।
और स्वयं को जानकर उन्होंने परम आनंद को जाना—वह परमानंद जो गौतम बुद्ध को घेरे हुए था, वह ज्ञान जो महावीर से प्रस्फुटित हो रहा था, वह आनंद, उन सभी का नृत्य जो जागृत हो चुके हैं। इसलिए जो कोई भी उनसे पूछता था, “हमें क्या करना चाहिए?”, उनके पास जीवन भर एक ही उत्तर होता था: “इस पर ध्यान करो कि ‘मैं कौन हूँ?'” महर्षि रमण ने मृत्यु के माध्यम से आत्मज्ञान प्राप्त किया। वे केवल सत्रह या अठारह वर्ष के थे और अचानक उन्हें लगा कि वे मर रहे हैं। वे ध्यान कर रहे थे; उन्होंने अनजाने में ही अपने हारा को छू लिया होगा। वे ध्यान में इतने लीन थे कि वे घर छोड़कर भाग गए और एक मंदिर के पास बैठ गए। मंदिर भारतीय मंदिरों की तरह गंदा था; हर जगह मक्खियाँ और कुत्ते थे। वे वहाँ कई दिनों से भूखे बैठे थे, और उनके पूरे शरीर पर मक्खियाँ थीं। कुत्ते भौंक रहे थे और बच्चे पास में खेल रहे थे – भारतीय गाँव का दृश्य।
और फिर अचानक उसे लगा कि वह मर रहा है, लेकिन उसने इसे स्वीकार कर लिया। यह ठीक था: अगर कोई मर रहा था, तो कोई मर रहा था। वह मृत्यु में शिथिल हो गया; उसका शरीर नीचे गिर गया। एक भीड़ इकट्ठा हो गई और उन्होंने सोचा कि यह लड़का मर गया है। और जो अंदर हो रहा था वह बहुत मूल्यवान था, परम मूल्यवान। रमण ने अपने शरीर को विलीन होते देखा। यहीं आप बहुत करीब आ गए थे। लेकिन उसने स्वीकार किया और आपने अस्वीकार कर दिया। फिर उसने अपने मन को विलीन होते देखा – लेकिन उसने इसे स्वीकार कर लिया। और फिर उसके चेहरे पर एक मुस्कान आ गई। शरीर गायब हो गया, मन गायब हो गया और वह अभी भी वहाँ था! कुछ भी नहीं मरा था! इसलिए उसने अपनी आँखें खोलीं और हँसा।
सभी बुद्ध पुरुष में से एक रमण महर्षि भी हैं जो विश्व में आध्यात्मिक नेता के रूप में उभरे और सभी को ध्यान जागरूकता का रास्ता अपनाने में मदद किए। उनकी विचार आज भी कितने मनुष्य को जगा रहा है लोगों को ध्यान साधना में उनकी विचार जैसे वैज्ञानिक की सूत्र के तरह काम करता है और लोग उठ रहे हैं जाग रहे हैं सभी खिल रहे हैं। आपको भी जागना चाहिए ताकि जीवन का भरपूर आनंद उठा सके और जितना दिन जीवन शेष है वो प्रेम करुणा शांति से गुजरे। लेकिन उसके लिए ध्यान की आवश्कता पड़ेगी फिर आप स्वयं जागने लगोगे फिर कोई संदेह नहीं फिर कोई संकोच नहीं आप स्वयं जागने लगोगे बस स्वयं को मौका तो दो।
इतने ध्यान से पढ़ने और सुनने के लिए हार्दिक आभार धन्यवाद प्रणाम।
धन्यवाद,
रविकेश झा,
🙏❤️😊,