जिद्दू कृष्णमूर्ति। ~ रविकेश झा।
नमस्कार दोस्तों कैसे हैं आप सब आशा करते हैं कि आप लोग अच्छे और पूर्ण स्वस्थ होंगे। आप लोग ध्यान के मार्ग पर चल रहे होंगे हमारे पास यही एक मुख्य साधन है जो हमें स्वयं से जोड़ता है परमात्मा से मिलाने में पूर्ण मदद करता है। हम पूरे दिन रात स्वप्न में खोए हुए हैं काम की स्वप्न भोग विलास में खोए हुए है स्वप्न देखते ही रहते हैं। एक है जागा हुआ स्वप्न जो जाग के देखते हैं और एक शरीर को विश्राम के अवस्था में आने के बाद। दोनों में क्या अंतर है नींद में हम मन में रहते हैं दिन भर जो स्वप्न देखते हैं उसे विस्तार करते हैं हालांकि वर्तमान शरीर से कोई लेना देना नहीं रहता दूसरे ओर जागा हुआ स्वप्न जिसमें हमें शरीर तो दिखाई देता है लेकिन हम फिर भी खोए हुए रहते हैं जिसे हम चेतन अवचेतन और अचेतन की जोड़ कहते हैं कभी मन में कभी शरीर में हम स्थिर नहीं रहते हैं हम स्वप्न देखते रहते हैं गहरी नींद में हमें इस भौतिक शरीर का अनुभव नहीं रहता और जागे हुए स्वप्न में शरीर तो रहता है लेकिन मन नहीं। वैसे तो चेतना के चार अवस्था है जागृत स्वप्न सुषुप्ति तुरिया हम पहले भी बात कर चुके हैं जागृत सबकी वश की बात नहीं जागृत में भी हम स्वप्न में खो जाते हैं स्वप्न जब मन पर जोर अधिक हो सुषुप्ति में हम गहरी नींद में होते है जो अवचेतन में ले जाता है जहां न शरीर बचता है न मन, चौथा है तुरिया जो शरीर मन आत्मा तीनों को देखने के बाद जो बचता है शून्य आत्मा परमात्मा वही तुरिया है जो सबको देखता है। लेकिन हम स्वप्न और नींद अवचेतन और अचेतन दोनों में अधिक फंसे रहते हैं इसीलिए हम उठ नहीं पाते और दलदल में धंसते जाते रहते हैं। और अंत में जब मृत्यु आता है फिर हम घबराने लगते हैं साहब हमें बस शरीर की जानकारी है थोड़ा बहुत साइंस पढ़े हैं मनोवैज्ञानिक को सुने है पढ़े है तो मन का कुछ ज्ञान हो सकता है। लेकिन जब तक पूर्ण ज्ञान नहीं हुआ तब तक हम अधूरे रहेंगे ये बात जो जान लिया जीवन में कचरा को देख लिया फिर वो भीतर के ओर बढ़ने लगेगा और सबके लिए जीने लगेगा पूर्ण आनंदित रहेगा परमात्मा से कनेक्ट हो जाएगा। आज हम बात कर रहे हैं जिद्दू कृष्णमूर्ति जी के बारे में एक महान आत्मा दार्शनिक वैज्ञानिक बुद्ध पुरुष जिन्हें हम बुद्ध कहते हैं जो हमें अपने ज्ञान और विचार के माध्यम से जगाए हैं उनके बारे में बात करना आवश्यक है।
जिद्दू कृष्णमूर्ति का जन्म 11 मई 1895 को भारत के आंध्र प्रदेश के एक छोटे से कस्बे मदनपल्ले में हुआ था। छोटी उम्र से ही उनमें असाधारण संवेदनशीलता और गहरी जागरूकता थी। उनका परिवार ब्राह्मण जाति से था, जिसने उनकी प्रारंभिक शिक्षा और आध्यात्मिक पालन पोषण को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कृष्णमूर्ति के जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब थियोसोफिकिल सोसाइटी के एक प्रमुख सदस्य चार्ल्स वेबस्टर लीडबीटर ने उन्हें खोजा। लीडबीटर का मानना था कि कृष्णमूर्ति ही चुने हुए व्यक्ति थे जिन्हें एक महान आध्यात्मिक गुरु बनना तय था। 1900 के दशक के आरंभ में, कृष्णमूर्ति एनी बेसेंट के नेतृत्व वाली थियोसोफिकल सोसाइटी के संरक्षण में आ गए। उन्होंने उन्हें नए विश्व गुरु, एक ऐसे मसीहा के रूप में तैयार किया जो आध्यात्मिकता और ज्ञानोदय के एक नए युग का सूत्रपात करेगा। ऑर्डर ऑफ द स्टार की स्थापना कृष्णमूर्ति को अपना प्रमुख बनाकर की गई। अपने ऊपर भारी दबाव और अपेक्षाओं के बाबजूद, कृष्णमूर्ति ने संगठित धर्म और आध्यात्मिक सत्ता की बुनियाद पर ही सवाल उठना शुरू कर दिया। 1929 में, उन्होंने स्टार ऑर्डर को भंग कर दिया और घोषणा की कि सत्य एक पथहीन भूमि है और उसे संगठित या संस्थागत नहीं बनाया जा सकता।
कृष्णमूर्ति की शिक्षाएं आत्म अन्वेषण के महत्व और आध्यात्मिक मामलों में सत्ता के त्याग पर ज़ोर देती है। उनका मानना था कि सत्य और समझ पाने के लिए व्यक्ति को अपने भीतर झांकना चाहिए। उनके दर्शन में पारंपरिक धार्मिक प्रथाओं और अनुष्ठानों के प्रति गहरा संशय था। उन्होंने मन के एक आमूलचूल परिवर्तन की वकालत की, जहां व्यक्ति समाज द्वारा थोपी गई शर्तों और सीमाओं से स्वयं को मुक्त कर सके। कृष्णमूर्ति के अनुसार, यही परिवर्तन सच्ची स्वतंत्रता और शांति प्राप्त करने का एकमात्र तरीका था। अपने पूरे जीवन में, कृष्णमूर्ति ने व्यापक रूप से यात्राएं की, व्याख्यान दिए और दुनिया भर के श्रोताओं से संवाद किया। उनकी शिक्षाओं ने विविध अनुयायियों को आकर्षित किया, जिनमें बुद्धिजीवी, वैज्ञानिक और जीवन की गहरी समझ चाहने वाले आम लोग शामिल थे। भौतिक विज्ञानी डेविड बोहम और बौद्ध विद्वान चोग्यम त्रुंगपा जैसे प्रभावशाली हस्तियों के साथ कृष्णमूर्ति के संवाद पूर्वी और पश्चिमी दर्शनों के बीच की खाई को पाटने की उनकी क्षमता को उजगार करते हैं। एक सार्वजनिक हस्ती होने के बाबजूद, कृष्णमूर्ति ने निजी जीवन को भी बनाए रखा। उन्होंने लेखक एल्ड्स हक्सले और दार्शनिक आइरिस सहित कई व्यक्तियों के साथ घनिष्ठ मित्रता स्थापित किया और उन्हें एक सहारा प्रदान किया। कृष्णमूर्ति का अपनी करीबी सहयोगी रोजलिंड राजगोपाल के साथ रिश्ता विशेष रूप से महत्वपूर्ण था। उनके पत्राचार से उनके व्यक्तिगत संघर्षों और अपने आदर्शों पर खड़ा उतरने में आने वाली चुनौतियों की अंतर्दृष्टि मिलती है। कृष्णमूर्ति का 17 फ़रवरी 1986 को ओजाई कैलिफोर्निया में निधन हो गया। हालांकि उनकी शिक्षाएं दुनिया भर के लोगों के साथ गूंजती रहती हैं। उनकी पुस्तकें, जिनमें द फर्स्ट एंड लास्ट फ़्रीडम और फ्रॉम द नोन शामिल हैं, आज भी लोकप्रिय हैं और आध्यात्मिकता तथा आत्मा अन्वेषण में रुचि रखने वाले के लिए आवश्यक पठन सामग्री मानी जाती हैं।
कृष्णमूर्ति फाउंडेशन जैसी उनकी शिक्षाओं के संरक्षण और प्रसार के लिए समर्पित संस्थाएं निरंतर फल फूल रही हैं, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि व्यक्तिगत अन्वेषण और आत्म जागरूकता का उनका संदेश आने वाली पीढ़ियों तक पहुंचाते रहे। कृष्णमूर्ति ने आत्म जागरूकता विकसित करने के साधन के रूप में शिक्षा को बहुत महत्व दिया। उन्होंने दुनिया भर में कई विद्यालयों की स्थापना की, जिसका उद्देश्य ऐसे वातावरण का निर्माण करना था जहां छात्र स्वतंत्र और आलोचनात्मक रूप से सोचना सिख सकें। शिक्षा के प्रति उनका दृष्टिकोण केवल अकादमिक ही नहीं, बल्कि व्यक्ति के समग्र विकास पर भी केंद्रित था। उनके विचार में, शिक्षा को छात्रों को अपने मन और अपने आसपास की दुनिया को समझने में मदद करनी चाहिए, और उनमें जिज्ञासा और करुणा की भावना को बढ़ावा देना चाहिए। इन गुणों को पोषित करके, कृष्णमूर्ति का मानना था कि व्यक्ति एक अधिक सामंजस्यपूर्ण और शांतिपूर्ण समाज के निर्माण में योगदान दे सकते हैं। कृष्णमूर्ति ने अपने पूरे जीवन में अपनी शिक्षाएं और व्यक्तिगत संवादों के माध्यम से अनेक लोगों को प्रेरित किया। एक उल्लेखनीय कहानी चिंता से जूझ रहे एक युवा छात्र को बिना किसी प्रतिरोध के अपनी भावनाओं का अवलोकन करने के लिए धीरे से मार्गदर्शन किया, जिससे छात्र के दृष्टिकोण में एक गहरा बदलाव आया। एक और प्रेरक कहानी सार्वजनिक व्याख्यानों की एक श्रृंखला से आती है जहां उन्होंने बड़ी संख्या में श्रोताओं को संबोधित किया। भीड़ के बाबजूद, कृष्णमूर्ति ने श्रोताओं के साथ एक व्यक्तिगत जुड़ाव बनाए रखा, अक्सर उनकी विशिष्ट चिंताओं और प्रश्नों का समाधान किया। जटिल विचारों को सहजता से संप्रेषित करने की उनकी क्षमता ने उपस्थित लोगों पर अमिट छाप छोड़ी। कृष्णमूर्ति की शिक्षाएं समकालीन विचारकों, शिक्षकों और आध्यात्मिक साधकों को प्रभावित करती रहती हैं। व्यक्तिगत अंतर्दृष्टि और हठ धार्मिकता के त्याग पर उनका ज़ोर उन लोगों के लिए प्रासंगिक है जो स्वयं और दुनिया को गहराई से समझना चाहते हैं।
कृष्णमूर्ति के मूलभूत विचारों में एक विचार की प्रकृति और मानव व्यवहार पर उसका प्रभाव है। उनका तर्क है कि विचार पिछले अनुभवों और विभाजन का कारण बनता है। विचार और सीमाओं को समझकर, व्यक्ति मानसिक बाधाओं से स्पष्टता और मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। कृष्णमूर्ति ज्ञात से मुक्ति के महत्व पर ज़ोर देते हैं, जिसमें विश्वास, परंपराएं और पूर्वधारणाएं शामिल हैं। यह स्वतंत्रता एक नए दृष्टिकोण और सच्ची समझ का मार्ग प्रशस्त करती है। उनका मानना था कि सच्ची शिक्षा अतीत के ज्ञान की छलनी से मुक्त होकर वास्तिवकता का अवलोकन करने से आती है। कई मनोवैज्ञानिक ने मानव मन के बारे में कृष्णमूर्ति की अंतर्दृष्टि का लाभ उठाया है। आत्म जागरूकता और अवलोकन पर उनका ज़ोर आधुनिक चिकित्सीय प्रथाओं के अनुरूप है, जो व्यक्तियों को बिना किसी निर्णय के अपने विचारों और भावनाओं का अन्वेषण करने के लिए प्रोत्साहित करता है। शोर और व्याकुलता से भरी दुनिया में , कृष्णमूर्ति की शिक्षाएं आंतरिक शांति और समझ का मार्ग प्रशस्त करती हैं। आत्म अन्वेषण और विचारों की प्रकृति पर ध्यान केंद्रित करके, व्यक्ति सामाजिक बंधनों से मुक्त हो सकते हैं और उद्देश्य की एक गहरी समझ प्राप्त कर सकते हैं। उनका कार्य उन लोगों के लिए ज्ञान का एक प्रकाश स्तंभ बना हुआ है जो जीवन की जटिलताओं को स्पष्टता और करुणा के साथ पार करना चाहते हैं। कृष्णमूर्ति पढ़े लिखे हैं कृष्णमूर्ति के बारे में कहा जाता है कि वो मनुष्य के हृदय को स्पर्श नहीं किए सही भी है उन्होंने माइंड का उपयोग किया चेतन पर अधिक बल दिए। जैसे ओशो हैं वो तब तक समझाते रहेंगे जब उन्हें न लगे कि हृदय और दिमाग दोनों जगह बात पहुंच गई तब तक वो समझाते रहेंगे चाहे वो वास्तिवक कहानी के माध्यम से चाहे काल्पनिक कहानी के माध्यम से। ऐसा नहीं है कि आप बोलोगे कि ओशो मैं समझ गया आप दूसरे पर बोलिए नहीं समय उनके हाथ में हैं वो जानते हैं कौन कहां फंसा हुआ है। वही दूसरी ओर कृष्णमूर्ति चेतना को प्राप्त करने के लिए चेतना से जुड़े हुए जैसे चेतन मन में जो प्रश्न उठा उस पर ध्यान केंद्रित करते थे। वैसे दोनों अद्भुत है वैसे दोनों यूनिवर्सिटी है लेकिन कृष्णमूर्ति बोलने समय कॉलेज के प्रोफेसर हो जाते हैं और ओशो यूनिवर्सिटी के, वैसे दोनों यूनिवर्सिटी से जुड़े हैं लेकिन बोलने का ढंग समझने और समझाने ढंग भिन्न हो सकता है साहब।
ओशो कहते हैं,।
कृष्णामूर्ति इसलिए असफल हुए क्योंकि वे मनुष्य के ह्रदय को छू ना सके; वे केवल मनुष्य के सिर तक ही पहुँच सके। ह्रदय कुछ और ही दृष्टिकोण मांगता है। मेरा पूरा जीवन यही अंतर रहा है मेरे और उनके दृष्टिकोण में : जब तक मनुष्य के ह्रदय तक पहुँचा ना जाये, तब तक तुम तोते की तरह, सुन्दर शब्द दोहराते रह सकते हो– उनका कोई अर्थ नहीं है। कृष्नामूर्ति जो भी कह रहे थे वह सत्य है, लकिन वह उन्हें तुम्हारे हृद्य से संबन्धित करने में असमर्थ रहे । दुसरे शब्दों में, मैं यह कह रहा हूँ कि जे। कृष्नामूर्ति एक महान दर्शनवादी थे पर वे एक सद्गुरु नहीं बन पाए। वे लोगों की मदद नहीं कर सके, लोगों को एक नए जीवन के लये तैयार करना, एक नई दिशा ।
परन्तु इसके बावजूद मैं उन से प्रेम करता हूँ, क्योंकि दार्शनिकों में वे जीवन के रहस्यवादी मार्गों के सबसे ज्यादा निकट पहुँच पाए। उन्होंने खुद ही रहस्यवादी मार्ग की अवहेलना की, उसे नज़रअंदाज़ कर दिया और इस कारणवश वे असफल हुए। परन्तु आधुनिक समकालीन विचारकों में वे अकेले ही हैं जो रहस्यवाद के बहुत निकट तक पहूँच पाए, लगभग उसकी सीमा रेखा पर और वहीँ रुक गए। संभवतः वे डरे होंगे कि यदि वे रहस्यवाद की बात करेंगे तो लोग रहस्यवाद के उन्ही पुराने ढंगों, पुरानीं परम्पराओं और पुराने दर्शन में गिरने लगेंगे। यह डर ही उन्हें इसमें प्रवेश करने से रोकता रहा। किन्तु उनका यही डर दूसरे लोगों को भी जीवन के रहस्यों में प्रवेश करने से रोक देता है।
मैं कृष्णमूर्ति के हजारों लोगों से मिला हूँ–क्योंकि जिसने भी कृष्णमूर्ति में रुचि ली है देर – सवेर वो मुझ तक अपना मार्ग खोजनेमें बाध्य हो जायेगा, क्योंकि कृष्णमूर्ति उन्हें जहाँ छोड़ते हैं, वहां मैं उनका हाथ पकड़कर उनका सत्य के अन्तरतम मंदिर में मार्गदर्शन करता हूँ। तुम कह सकते हो कि कृष्णमूर्ति से मेरा सम्बद्ध यह है कि कृष्णमूर्ति ने मेरे लिए भूमि तैयार कर दी है। उन्होंने लोगो को मेरे लिए बौद्धिक रूप से तैयार कर दिया है; अब यह मेरा काम है कि मैं उन्हें बुद्धि से गहरे ले जाऊं, ह्रदय तक; और ह्रदय से गहरे, अंतरआत्मा तक। यही बात कृष्णमूर्ति चालीस-पचास वर्षों से लगातार कहते आएं हैं: “किसी का अनुकरण मत करो। लोग बिना किसी का अनुकरण किये पहुँच सकते हैं”–पर यह मार्ग कठिन और लंबा है क्योंकि तुम्हे जो भी संभव मदद या मार्गदर्शन दिया जा सकता है तुम उसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होगे जो की संभव है और जो तुम्हारे मार्ग की बहुत सी अनावश्यक कठिनाइयों को काट सकता है। यही है जो कृष्णमूर्ति कहते आएं हैं–किसी ने यह नहीं किया है।
यही मन की समस्या है। मन यह स्वीकार कर सकता है–इसलिए नहीं कि उसे यह समझ आ गया है, पर इसलिए कि किसी का अनुकरण ना करना अहंकार के लिए संतुष्टिदायक होता है । कोई किसी का अनुकरण नहीं करना चाहता। बहुत गहरे में अहंकार इसका विरोध करता है।
इसलिए कृष्णमूर्ति के आस-पास सारे अहंकारी एकत्रित हो गए हैं। वे फिर अपने आप को धोका दे रहें है। वे सोचते हैं कि वे किसी का अनुकरण नहीं कर रहे क्योंकि उन्हें अनुकरण करने के पीछे का भ्रम समझ आ गया है, उन्हें समझ में आ आ गया है कि इस मार्ग पर अकेले ही चला जा सकता है, उन्हें समझ में आ गया है कि कोई मदद संभव नहीं है, कोई तुम्हारी मदद नहीं कर सकता, कोई तुम्हारा मार्गदर्शन नहीं कर सकता; तुम्हे अकेले ही यात्रा करनी होगी। उन्हें लगता है कि उन्हें यह समझ में आ गया है, इसीलिए वे किसी का अनुसरण नहीं कर रहे। यह सत्य बात नहीं है–वे धोखा दे रहें हैं। वे इसलिए अनुसरण नहीं कर रहे क्योंकि उनका अहंकार उन्हें इसकी अनुमति नहीं दे रहा।
और, फिर भी वे कृष्णमूर्ति को सुनते चले जा रहें हैं। सालों साल तक वे फिर-फिर जातें हैं।
यदि कोई मदद ही संभव नहीं है तो फिर आप कृष्णमूर्ति के पास बार-बार जा क्यों रहें है? यदि कोई मार्गदर्शन कर ही नहीं सकता, तो उन्हें बार-बार सुनने का क्या अर्थ है? यह व्यर्थ है। और यह मनोदृष्टि कि यात्रा तुम्हे अकेले करनी है, तुमने नहीं खोजी है–कृष्णमूर्ति ने ही तुम्हे दी है। गहरे में वे तुम्हारे गुरु बन गए हैं। लेकिन तुम यह कहे चले जाते हो कि तुम किसी का अनुसरण नहीं कर रहे–यह एक धोका है।
यही धोका विपरीत ओर से भी हो सकता है। तुम मेरे पास आते हो, तुम सोचते हो कि तुमने समर्पण कर दिया, और तब भी तुम चयन करते जाते हो। यदि मैं तुम से कुछ कहता हूँ जो तुम्हे जंचता है–तो इसका अर्थ है कि वह तुम्हारे अहंकार को जंचता है–तुम उसका पालन करते हो। यदि मैं कुछ कहता हूँ जो तुम्हे नहीं जंचता, तुम उससे तर्क बिठाने लगते हो: “यह शायद मेरे लिए नहीं है।” तो तुम्हे लगता है कि तुमने समर्पण किया , तुमने समर्पण किया नहीं है।
कृष्णमूर्ति के पास इकठ्ठा हुए लोग सोचते हैं कि वे किसी का अनुसरण नहीं कर रहे, और वे अनुसरण कर रहे हैं। मेरे पास तुम सोचते हो कि तुम मेरा अनुसरण कर रहे हो, और तुम नहीं कर रहे। मन हमेशा एक धोकेबाज है। तुम कहीं भी जाओ वह तुम्हे धोका दे सकता है, वह तुम्हे धोका देगा–तो सचेत रहो। ओशो ने सही कहा है ओशो में कोई अहंकार नहीं है बल्कि सच्चाई को परिभाषित किए हैं बहुत को लगता है कि कृष्णमूर्ति से ओशो जलते हैं नहीं दोनों आध्यात्मिक नेता रहे हैं दोनों में शालीनता है प्रेम है लेकिन जीने और बोलने की कला अलग है। ओशो महान हैं तो कृष्णमूर्ति भी हैं लेकिन यहां बुद्धिमान और मूर्ख दो श्रेणी है कृष्णमूर्ति बुद्धिमान के लिए हैं ओशो दोनों के लिए कृष्णमूर्ति में बुद्ध अधिक झलकता है ओशो मिक्स है सभी दार्शनिक का जोड़ कर फिर अपना अनुभव से देखते हैं। कहने का अर्थ है सुनते है सबका करते हैं अपने मन का, सभी से डेटा फेच होने के बाद आउटपुट देते हैं इनपुट पर भी पूर्ण ध्यान केंद्रित करते हैं। अगले लेख में उनके विचारों पर ध्यान दिया जाएगा।
हमें सभी दार्शनिक को पढ़ना चाहिए सभी बुद्ध पुरुष को ध्यान और जागरूकता से पढ़ना चाहिए ताकि हमारे जीवन में भी स्पष्टता आए और हम सब पूर्णता के ओर बढ़ें।
इतने ध्यान से पढ़ने और सुनने के लिए हार्दिक आभार प्रणाम।
धन्यवाद,
रविकेश झा,
🙏❤️😊,