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8 Nov 2025 · 8 min read

जीवन जीने की कला। ~ रविकेश झा।

जीवन की भागदौड़ में हमें सांस लेने की भी समय नहीं मिलता हम प्रतिदिन जीवन बिना खोज किए जीते रहते हैं। हमें बस जीवन में कैसे भी आगे बढ़ना है उसके लिए कोई भी हद तक जा सकते हैं। तनाव में रह सकते हैं क्रोध में कोई भी हद तक हम जा सकते हैं। लेकिन अगर हम चाहें तो हम भीतर के ओर आ सकते हैं, हम कुछ और हैं अगर ये हम जान लेते हैं फिर हम शून्य के ओर बढ़ सकते हैं। हमें जीवन मिला है लेकिन हम जीवन को मृत्यु तक पहुंचा ही देते हैं जब तक मृत्यु न घेर ले तब तक हम जीवन में संघर्ष करते रहते हैं। मृत्यु एक दिन तो शरीर को समाप्त कर ही देता है लेकिन हम जीते जी भी मरे मालूम पड़ते हैं, हमें जीवन को नीचे लाते रहते हैं नीचे की ओर देखते रहते हैं भोग संभोग क्रिया और अन्य सुख में शामिल हो जाते हैं इसे मृत्यु ही कहते हैं। जिसे जीवन का बोध नहीं जिसे ये मालूम नहीं कि जीवन क्यों मिला है जागा नहीं तो वो क्या करेगा मरेगा ही मर के ही जिएगा। क्योंकि उसे शरीर दिखता है आंख बंद करके शरीर मन में उलझ जाता है और जागृत अवस्था में नहीं पहुंच पाता है मृत्यु से पहले ही मरा हुआ रहता है इसलिए मृत्यु उसे और डरावना सा लगता है। जीवन एक है अभी अभी हम जी रहे हैं लेकिन कैसे किसके लिए और क्यों हम इस बात पर ध्यान नहीं देते हैं हम बस मरे हुए जीते रहते हैं और सामने वाले इसका व्यक्तिगत लाभ भी उठाता है, हम कमज़ोर हैं तो फिर दुखी होते रहते हैं या शक्ति है तो क्रोध में आते हैं या समय के इंतज़ार में रहते हैं कि अपना टाइम आएगा। लेकिन हम बदला में जीने लगते हैं हम शांत नहीं हो पाते हम स्थिरता को नहीं स्पर्श कर पाते हैं हम बस बदला लेने में या भय में जीते रहते हैं। हमें अकेले होने की देर है फिर हम एकांत में स्वयं स्थिर हो सकते हैं, हमें जीवन को स्थिर होकर देखना होगा कि हम कैसे जी रहे हैं। कोई शरीर में अटका है तो कोई मन में कोई एक आत्मा तक पहुंच जाता है लेकिन जो शरीर मन में अटकना चाहेगा वो उठना ही नहीं चाहेगा उसे कोई उठाएगा तो क्रोध आएगा जैसे सुबह को किसी को नींद से जगाओ तो वो क्रोध से भर जाता है। ऐसे ही जीवन में हम सोए हुए हैं मरे हुए हैं कोई उठता है कोई जागृत करता है जीवंत करता है तो उसके प्रति क्रोध घृणा उठने लगता है। लेकिन ऐसा हमारा स्वभाव नही है हम कुछ और हैं हम हीरा है लेकिन हम कचरा को लेकर चलते हैं कचरा तो कचरा पर क्रोध करेगा ही क्योंकि वो चाहेगा कि मेरा कचरा अच्छा है मैं ठीक हूं दूसरे का भी कचरा अच्छा हो सकता है अगर वो मेरा बात मान ले। कैसे मोगली जी सर्फ रखे हैं जो एनडीए ज्वाइन किया वो अच्छा हो गया अगर कोई विरोध करेगा तो क्रोध उठेगा जेल आप मोगली जी के उदाहरण से समझ सकते हैं। 😎, उसे क्रोध आएगा ही।

कुछ ऐसे होते हैं जो उठना तो चाहते हैं लेकिन परिवार और समाज वर्ग के कारण उठ नहीं पाते, और कैसे भी जीने लगते हैं। हमें जीने की कला नहीं आता हम क्या करेंगे हम कैसे भी जीने पर मजबूर होंगे ही। ऐसा विचार संस्कार के बीच बंध जाते हैं कि हमें भीतर का रास्ता भी दिखना बंद हो जाता है। जीने की कला हमें आना चाहिए जीवन की कला ही हमें भीतर के ओर मुड़ने में मदद कर सकता है हम जीने की कला पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं। आज की भागदौड़ भरी दुनिया में, आध्यात्मिकता का महत्व अक्सर दैनिक जीवन की मांगों के आगे दब जाता है। फिर भी, आध्यात्मिकता को अपनाने से हमारी भलाई में उल्लखेनीय वृद्धि हो सकती है और हमें वास्तिविक उद्देश्य की भावना प्राप्त हो सकता है। आध्यात्मिकता किसी विशिष्ट धर्म या विश्वास प्रणाली तक सीमित नहीं है, यह स्वयं को और ब्रह्मांड को समझने की एक व्यक्तिगत यात्रा है। आध्यात्मिकता हमें अपने अंतर्मन से जुड़ने में मदद करता है और शांति एवं पूर्णता की भावना को बढ़ावा देती है। यह हमें भौतिकवादी इच्छाओं से परे देखने और जीवन के गहन पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करने के लिए प्रोत्साहित करती है। अपने आध्यात्मिक पक्ष को पोषित करके, हम एक ऐसा संतुलन प्राप्त कर सकते हैं जो समग्र सुख और संतुष्टि को बढ़ावा देता है। भावनात्मक स्वास्थ्य पर आना होगा, ध्यान और प्राथना जैसी आध्यात्मिक प्रथाओं में संलग्न होने से तनाव और चिंता कम हो सकती है, जिससे भावनात्मक स्वास्थ्य में सुधार हो सकता है। आध्यात्मिकता एक दिशा प्रदान करती है, जिससे व्यक्तियों को व्यापक जीवन में अपनी भूमिका को समझने में मदद मिल सकती है। कई आध्यात्मिक अभ्यास सामुदायिक भागीदारी को प्रोत्साहित करते हैं, दूसरों के साथ जुड़ाव और अपनेपन की भावना को बढ़ावा देते हैं। कुछ व्यावहारिक निर्णय जो भौतिक जगत में हमारी भलाई और सफलता सुनिश्चित करते हैं जैसे की विवेक और ध्यान। जीवन के सांसारिक पहलू में उत्कृष्टता प्राप्त करने के लिए, व्यक्ति को समय प्रबंधन, संचार और समस्या समाधान जैसे कौशल विकसित करने चाहिए। ये कौशल सूचित निर्णय लेने और व्यक्तिगत एवं व्यावसायिक लक्ष्यों को प्राप्त करने में मदद करते हैं। जीने की कला में आपको मदद करेगा जिसके मदद से आप भीतर और बाहर दोनों जगह स्थिर रहेंगे।

जीवन जीने की सच्ची कला आध्यात्मिक और सांसारिक दोनों दृष्टिकोण को एकीकृत करने में निहित है। इस एकीकरण में आंतरिक शांति और बाहरी सफलता के बीच संतुलन बनाए रखना पर काम होता है। यह हमारे कार्यों को हमारे मूल्यों के साथ सरेंखित करने और यह सुनिश्चित करने के बारे में है कि हमारी आध्यात्मिक साधनाएं हमारे सांसारिक प्रयासों का समर्थन करें अगर हम जीने की कला में माहिर होना है तो सुनिश्चित होने पर ध्यान देना होगा। इस दृष्टिकोण को एकीकृत करने का एक प्रभावी तरीका ऐसी प्राथमिकता निर्धारित करना है जो आध्यात्मिक और सांसारिक दोनों लक्ष्यों को प्रतिबिंबित करें। इसमें ध्यान के लिए समय समर्पित करना और साथ ही करियर में उन्नति या व्यक्तिगत विकास पर ध्यान केंद्रित करना शामिल हो सकता है। जीवन जीने की कला को विकसित करने में मदद करने के लिए यहां कुछ व्यावहारिक कदम उठा सकते हैं। दैनिक ध्यान स्पष्ट लक्ष्य निर्धारित करें लेकिन कैसे उसके लिए जागरूकता पर पहले ध्यान देना होगा वही आपको जीने की कला को मजबूती प्रदान करेगा। कृतज्ञता का अभ्यास करना होगा जीवन के सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं पर चिंतन करें। विचार साझा कर सकते हैं ग्रुप बना सकते हैं निरंतर सीखते रहें और बदलावों के साथ तालमेल बिठाएं। इन चरणों का पालन करके, व्यक्ति एक सामंजस्यपूर्ण और संपूर्ण जीवन का निर्माण कर सकता है जिसमें आध्यात्मिक और सांसारिक दोनों तत्व शामिल हों। जीवन जीने की कला एक सतत यात्रा है जिसके लिए आत्म जागरूकता और समर्पण की आवश्यकता है आध्यात्मिक और सांसारिक दोनों दृष्टिकोण को अपनाकर हम एक संतुलित और समृद्ध जीवन जी सकते हैं। यह यात्रा को अपनाने और जीवन में आने वाली चुनौतियों और विजयों, दोनों में आनंद खोजने के बारे में है। हमें जीवन में जीने की कला पर ध्यान देना है तो हमें आध्यात्मिक और सांसारिक दोनों पर सेतु बांधने का कार्य करना होगा। हम अभी भागदौड़ में शामिल हैं स्थिर होने के लिए जागरूकता पर काम करना होगा ध्यान में आना होगा तभी हम शांति और शून्य के ओर जायेंगे। बाहर के लिए शांति यानी मन अंदर के लिए शून्य यानी आत्मा बस हमें इस पर ध्यान देना है हम आध्यात्मिक और सांसारिक जीवन के बीच सेतु बांध सकते हैं। हम अभी काम में अटके हुए हैं राम से कोई लेना देना नहीं राम को याद भी करते हैं तो भौतिक रूप में न कि आत्मिक। ऐसे में हम जीवन में नीचे गिरते रहते हैं और संभावना को कम करते रहते हैं। हम कुछ और हो सकते हैं बल्कि बस हो सकते हैं होना काफ़ी है बनना क्यों जब ही कुछ बनना होगा तो हम अवचेतन और चेतन दोनों में अटक जायेंगे इसीलिए मात्र होना be not become, only being, be, पर ध्यान देना होगा।

पांच भूतों से गुजरना होगा सभी पर शुद्धि प्राप्त करना होगा। पंच तत्व पृथ्वी अग्नि जल वायु आकाश। आपका पहला शरीर अन्नमय कोष भोजन यानी पृथ्वी से जुड़ा हुआ है दूसरे ऊर्जा शरीर जो अग्नि से जुड़ा हुआ है प्राणमय कोष से जुड़ा हुआ है इसमें अग्नि शामिल है। तीसरा है जल यानी मनोमय कोष मनस शरीर से संबंधित है इसमें जल का गुण होता है। जब आप भीतर आओगे जागरूकता के साथ फिर आप मनोमय कोष को अनुभव कर सकते हैं गतिशील यानी जल की धारा बहना। चौथा है वायु लगभग अदृश्य ही है आप उसे देख नहीं सकते फिर भी मौजूद रहता है लेकिन गहरी ध्यान से अनुभव कर सकते हैं। यह भाव शरीर विज्ञानमान कोष से जुड़ा हुआ है लेकिन अनुभव पर जोर देना होगा। और तब अंत ने में बचा आकाश ये अनुभव नहीं किया जा सकता उसके लिए सभी चक्र को जागृत करना होता है। यह वायु से अधिक सूक्ष्म हो जाता है बस आप विश्वास में आ सकते हैं थोड़ा मान सकते हैं अगर छठा चक्र पर स्थिर हुए तो क्योंकि वह शुद्ध शून्य है आकाश है आनंद है उसके लिए द्रष्टा होना होगा बस देखते रहना होगा। लेकिन जब आप भीतर स्थिर हो जाओगे आकाश को देख लोगे फिर आपको पता चलेगा कि आप कितने सूक्ष्म हो आकाश से भी सूक्ष्म क्योंकि अब आप आकाश को भी देखने लगे हो अब आप भौतिक सूक्ष्म और ब्रह्म तीनों से परे हो गए यानी कि शुद्ध परमात्मा हो गए। जब आप स्थूल और सूक्ष्म से परे हो जाओगे फिर आप मौन ही रहोगे आप देखोगे अस्तित्व है भी और नहीं भी जिसे हम होना और न होना आकार निराकार और दोनों को देखने वाला बस होना यानी रूक जाना पूर्ण मृत्यु तभी ही आप पूर्ण समाधि में भी आ पाओगे। आपको बस जागना है फिर आप शरीर मन से परे उठने लगोगे और निरंतर ध्यान से जीने की कला आ जायेगी और आप बाहर भीतर संतुष्ट रहेंगे उठ सकेंगे। हमें सात शरीर सात चक्र इस पर अधिक ध्यान नहीं देना है नहीं तो हम भय में आ सकते हैं या निर्णय लेने में जल्दी कर सकते हैं हमें बस शरीर और विचार पर ध्यान केंद्रित करना है वो भी समय लेकर न कि जल्दी में, फिर आप देखोगे कि आप पूर्णता के ओर बढ़ रहे हैं फिर धीरे धीरे आप शरीर मन आत्मा सभी चक्र को खोलकर पूर्ण परमात्मा हो सकते हैं फिर आप बाहर खुश और भीतर आनंदित दोनों जगह प्रसन्न रहेंगे। आनंद आत्मा से जुड़ा है खुशी भौतिक से शरीर से शरीर खुश होता है आत्मा आनंदित खुशी बाहरी है आनंद आंतरिक खुशी खत्म होगा किसी भौतिक पर निर्भर है समय पर निर्भर है लेकिन आनंद शाश्वत है अनंत है सनातन और अनंत दोनों में मौजूद है न खत्म हुआ है न होगा।

जीने की कला पर ध्यान देना होगा आपको स्वयं विचार करना होगा कि हम क्या कर रहे हैं जीवन में हमें कहां पहुंचना है शरीर तक सीमित होना है या खुल कर जीना है जो निर्विचार और खुल कर जीने लगा खुशी आनंद में आ गया फिर उसे जीने की कला आ गया जीवन को व्यर्थ नहीं सार्थक सृजन करने लगेगा लेकिन उसके लिए जागरूकता से जुड़ कर रहना होगा साहब। आध्यामिकता में बहुत ज्यादा स्थिरता है और सांसारिक जीवन में उलझन भागदौड़ हमें उसी में सेतु बनाने का कार्य करना है। फिर हम पूर्ण आनंदित हो सकते हैं फिर हमें खुशी की जरूरत नहीं फिर हम परमानेंट खुश रह सकते हैं जिसे हम आनंद कहते हैं। हम पहले अकेला (शरीर मन) होना है फिर एकांत (आत्मिक) होना है फिर हमें आध्यात्मिक और सांसारिक दोनों के बीच सेतु बांध कर पूर्ण आनंदित रहना है फिर है खुशी और आनंद दोनों प्राप्त कर सकते हैं।

इतने ध्यान से पढ़ने और सुनने के लिए हार्दिक आभार।
धन्यवाद,
रविकेश झा,
🙏❤️😊,

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