बस जिए जा रहे हर घड़ी यूं ही हम,
बस जिए जा रहे हर घड़ी यूं ही हम,
प्रेम का ये सफर अब समापन को है।
कर्म तो साथ हर पल निभाता रहा,
भाग्य को किंतु कुछ और मंजूर है,
प्रेम भी अपना क्या इतना मजबूर है?
जो प्रणय छोड़कर यूं बिछड़ने को है।
बस जिए जा रहे हर घड़ी यूं ही हम,
प्रेम का ये सफर अब समापन को है।
हर नदी की सतह पर है मुख चांद का,
चांद पर किंतु नदियां तो मिलती नहीं,
सबको सब-कुछ ही मिल जाय होता नहीं,
अब तलक जो भी पाया वो खोने को है।
बस जिए जा रहे हर घड़ी यूं ही हम,
प्रेम का ये सफर अब समापन को है।
फूल के भाग्य में होते कांटे मगर,
धूप के भाग्य में छांव होती नहीं,
जी लिए जो, सहज जिंदगी तो नहीं,
अब मगर यादें सारी भुलाने को है।
बस जिए जा रहे हर घड़ी यूं ही हम,
प्रेम का ये सफर अब समापन को है।
अभिषेक सोनी “अभिमुख”
ललितपुर, उत्तर–प्रदेश