ग़ज़ा की ज़मीं पर फिर धुआँ छा गया,
ग़ज़ा की ज़मीं पर फिर धुआँ छा गया,
मासूम बचपन फिर ख़ौफ़ खा गया।
माँ की गोद में लिपटी लाशें हैं,
इंसानियत का दिल फिर काँप गया।
टूटी इमारतें, सन्नाटा बोलता,
हर पत्थर से दर्द टपकता है।
नदी नहीं, खून की धारा बहती,
हर चेहरा सवाल करता है।