*दूसरा पक्ष*
#नवाचार
नए दौर, नया पहलू नया नज़रिया।
एक दोहे का दूसरा पक्ष
(प्रणय प्रभात)
बचपन में एक दोहा माध्यमिक कक्षा के विद्यार्थी के रूप में पढ़ा था…
“बड़े बड़ाई ना करैं, बड़े न बोलें बोल।
हीरा मुख से कब कहे, लाख हमारा मोल॥”
यह उत्कृष्ट दोहा महान कवि रहीम दास जी का है, जो सदियों तक सटीक रहा। दोहे का अभिप्राय यह था कि बड़े को अपना बड़प्पन बताने की आवश्यकता उसी प्रकार नहीं, जैसे हीरे को अपना मोल बताने की।
निस्संदेह, कविवर के युग में इस दोहे के अपने मायने थे, अपनी प्रासंगिकता थी। एकाध सदी बाद तक भी रही। कारण था तत्कालीन देश काल और वातावरण। वो युग जिसमें “खग की भाषा खग ही जाने” जैसी उक्ति का अपना अर्थ था। जी हां, यह वही युग था, जब ज्ञानवान और विवेकी शासक भीड़ में से गुणवत्तों को तलाश लिया करते थे। उन्हें व उनकी दक्षता को सम्मान देते थे। यथोचित प्रश्रय व प्रोत्साहन भी।
अब नए समय में बहुत कुछ बदला है तो पुराना दोहा भी अपना नया पक्ष चाहता है। आज आदमी को अपनी महत्ता स्वयं साबित करनी पड़ती है। जो नहीं कर पाते, वो पड़े रह जाते हैं अंधेरे में और पिछड़ जाते हैं दौड़ में। यदि यह झूठ होता, तो नवरत्न की अवधारणा झूठी होती।
इतिहास भरा पड़ा है, विभिन्न कर्म क्षेत्रों की उन विभूतियों से, जिन्हें दरबारों ने न केवल खोजा बल्कि अभाव और गुमनामी के हाशिए से प्रतिष्ठा के केंद्र में लाने का काम किया गया। कला, साहित्य, संस्कृति से लेकर धर्म, कर्म व आध्यात्म तक के मनीषी आवेदन देकर कीर्तिबान नहीं बने। तलाशे और तराशे जाने के बाद क्षितिज पर स्थापित व आलोकित हुए। नाम सैकड़ों में नहीं हज़ारों में हैं। शोध हो तो लाखों तक भी पहुंच सकते हैं।
यह वो युग था, जब एक दोहे की एक पंक्ति पर लिखी गई दूसरी पंक्ति से नवरत्न में शामिल राजकवि रहीम अज्ञातवासी गोस्वामी तुलसीदास को पहचान लेते थे। ये वही युग था जब बीरबल, तानसेन, तेनालीराम, आचार्य विष्णु शर्मा, चाणक्य अपनी मेधा और विशिष्टता के बूते लोक चर्चित होकर कालजयी हो जाते थे। आज जैसी अत्याधुनिक तकनीक व गूगल जैसे सर्च इंजन, सोशल मीडिया और डिजिटल प्लेटफॉर्म न होने के बाद भी। जी हां, वही युग था जब कीर्ति की महक जौहरियों की ज्ञानेंद्रियों तक सहज पहुंच बना कर सुकीर्ति में बदल जाया करती थी। निस्संदेह, यह वही युग था जब एकलव्य के हुनर को कुत्ते के मुंह में भरे तीरों से परख लिया जाता था और कर्ण के वर्ग को उसके विरोचित साहस के नैसर्गिक गुणधर्म से।
निस्संदेह, तब किसी हीरे को अपना मूल्य समझाने की कतई आवश्यकता नहीं होती थी। भृगुकुल भूषण परशुराम रघुकुल मणि राम जी को उनके शील व तेज से पहचान लेते थे तो महाराज दुष्यंत सिंह के दांत गिनते पराक्रमी भरत व नीतिगप्रवर कौटिल्य भावी सम्राट चंद्रगुप्त को। समर्थ गुरु रामदास ने वीरवर शिवा और आचार्य रामकृष्ण परमहंस ने युगदृष्टा विवेकानंद को किसी लिखित या मौखिक परीक्षा नहीं, प्रखर चेतना के माध्यम से जाना और दुनिया में एक पुरोधा बना कर ही दम लिया।
इसी तरह के चिंतन से प्रेरित एक नवाचारी और प्रयोगधर्मी रचनाकार के रूप में मैने सामयिक संदर्भों में तमाम दोहों के दूसरे पक्ष को रेखांकित करने का प्रयास पहले भी किया है, आज भी कर रहा हूँ। इस मर्म के साथ कि बदलाव एक अहम प्रक्रिया है, जिससे अछूता कुछ नहीं। अन्य कई दोहों की तरह उक्त दोहे का दूसरा पक्ष आज भी प्रस्तुत कर रहा हूं। बदली हुई सारी परिस्थितियों और परिदृश्यों के अनुसार। सुधिजन पुराने ब नए दोहों के बीच का द्वंद्व न मानें, बल्कि इस प्रयोग को देशकाल और वातावरण में बदलाव की दृष्टि से देखें। इस तर्क के आधार पर कि “साहित्य समाज का दर्पण होता है।” दृश्य व प्रतिबिंब बदलते रहते हैं और दर्पण उन्हें प्रतिबिंबित करता रहता है।
जी हां, इस लिहाज से, इस तरह की सोच ब नवाचार को न धृष्टता माना जाना चाहिए, न कुतर्क की कसौटी पर घिसने का प्रयास होना चाहिए। ख़ास कर आज के इस नए दौर में, जहां पंच व पार्षद जैसे छोटे से छोटे पद के लिए ख़ुद की दावेदारी ख़ुद को करनी पड़ती है। आज कथित श्रेष्ठ कार्य के नाम पर मिलने वाले एक अदद कागज़ी प्रमाणपत्र तक के लिए चाटुकारिता व चमचागिरी की बैसाखी बगल में लगानी पड़ती है। जो कृतार्थ, उपकृत व लाभान्वित होने की पहली शर्त है। छोटे बड़े संस्थागत या सरकारी सम्मान व पुरस्कार के लिए भी याचना या भिक्षुक के रूप में नामांकन और आवेदन भेजना पड़ता है।
किसी वर्ग, समूह या समुदाय को अपना जनाधार बनाने की मंशा से धुत्त राजनीति सुर्खी में बने चेहरों को सम्मानित कर दे, वो अलग बात है। पीढ़ियों को मूर्ख बना कर साधने के लिए किसी। पुरखे को देवतुल्य सिद्ध कर दे, उस पर भी कोई अचरज नहीं किया जाना चाहिए। इन सबके बाद भी बड़ा और कड़ा सच यह है कि आज अपने आपको साबित करने का प्रयास डीएम, सीएम से लेकर पीएम तक को हर दिन करना पड़ता है, ताकि जिले से प्रदेश और देश से दुनिया तक डंका बजता रहे।
आज जितने भी चेहरे चमक रहे हैं, वो उनके हैं जो स्वयं को सुर्खी में बनाए रखने की उधेड़बुन के साथ सोते हैं और नए जोड़ जुगाड के साथ जागते हैं। फिर इसके लिए चाहे मायावी मृग बनना पड़े या कुछ और। लोगों को गिराने व कुचलने के साथ आगे बढ़ने की सीख देते आज के दौर में आप तब तक बेमोल हैं, जब तक आप ख़ुद अपना मोल तय नहीं करते। कृत्रिम नग नगीनों के चलन वाले इस दौर में रोशनी कांच के टुकड़ों को चमक दे रही है, जबकि हीरे तिजोरी या लॉकर्स में अंधेरे की चादर ओढ कर चुपचाप पड़े हैं।
अवसरवादी, ईर्ष्यालु व कृतघ्नों की भीड़ में आज कोई कर्मशील यह उम्मीद नहीं कर सकता कि कोई उसे हाशिए से बाहर लाएगा। कीर्ति को सुगंध की तरह विस्तारित करने की आस हवा के उन झोंको से करना अब बेमानी है, जिनका काम केवल दीप बुझाना और ज्वाला को दावानल बनाना है। सुगंध के बजाय दुर्गंध की संवाहक विषाक्त हवाओं से अब प्राणवायु की नहीं संक्रमण की ही आस की जा सकती है। कहने का अभिप्राय यह है कि आज हम उस युग में हैं, जहां देवताओं को पुजने के लिए भी पंडों पर निर्भर रहना पड़ रहा है।
सच को पांव होते हुए घिसटने पर विवश करने वाले नए युग में बिना पैर वाले झूठ को फर्राटा भरने की छूट है। ऐसे में आपकी प्रतिष्ठा के रथ को कोई आगे से होकर हांकेगा, इसकी कल्पना भी न करें। धनबल, बाहुबल या सत्ताबल की दम पर परजीवियों का झुंड पाल रखा हो तो अलग बात है। अन्यथा आप हीरा होकर भी ख़ुद को सिद्ध नहीं कर पाएंगे। जब तक जी जान से आगे आने का हुनर नहीं अपनाएंगे घोड़े होकर भी गधे की श्रेणी में रहेंगे। बस इसी कटु अनुभव के बीच पुराने दोहे को नई पोशाक पहनानी पड़ी और इसके पीछे की सोच को इस लेख के माध्यम से रेखांकित करना पड़ा। यह कहते हुए कि…
“मोल हमारा लाख का, हीरा सका न बोल।
जगत कबाड़ी ने दिया, साथ कांच के तोल।।”
संपादक
न्यूज़&व्यूज
श्योपुर (मप्र)
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