हर रास्ते में मिलने वाले
हर रास्ते में मिलने वाले
रास्ते के ही हो जाते हैं
दुख दर्द है हमारे मरहम
हमसे लिपट के सो जाते हैं
पंछी जब वापस आता है
सारे कोटर भर जाते हैं
रात बहुत हुई है प्यारे
अब तो हम घर जाते हैं
ऐसे थकते हैं हम यारों
ऐसे सोते मर जाते हैं
नदियों के मृदु पानी को
सागर खारा कर जाते हैं
लोग दर्द देते हैं ऐसे
जीता हारा कर जाते हैं
इतना डूबके तन्हाई में
अंदर से भी भर जाते हैं
देखा है हर मौसम हमने
क्यों यह पत्ते झड़ जाते हैं
विरानी इस दुनिया में
जंगल ही नजर आते हैं
कवि दीपक सरल