कांति मुख पर कैसे लाऊँ
छल रहा है काल मुझको काल को कैसे बताऊँ
घुल रहा है विष तन में, कांति मुख पर कैसे लाऊँ।
पालकी मधुमालती की, द्वार तक आती है प्रतिदिन
वेदना की देहरी पर, भय से भर जाती है अनगिन
है शुभकामना अंतर्नयन की, हिय में अनुराग जागे
किंतु पीड़ा की तपन, चीख ठुकराती है अनुदिन।
विश्वास का दीपक बुझा, लौ आस की कैसे जलाऊँ
घुल रहा है विष तन में, कांति मुख पर कैसे लाऊँ।
प्रार्थना के शब्द खाली, इष्ट ना जाने कहाँ हैं।
संकेत जिस पथ का मिला, शूल पग पग पर वहाँ हैं।
अब है सशंकित आत्मा, इस देह का उपक्रम न टूटे
श्वांस थमने सी लगी है, न जाने जाना कहाँ है।
हो व्यथित जब मति भ्रमित, युक्ति कोई कैसे लगाऊँ
घुल रहा है विष तन में, कांति मुख पर कैसे लाऊँ।
-देवेंद्र प्रताप वर्मा ‘विनीत’