कड़वी लेकिन हक़ीक़त
कड़वी लेकिन हक़ीक़त
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जीवन का सत्य अक्सर मीठे आवरण में नहीं, बल्कि कड़वी सच्चाइयों में छुपा होता है। इन्हीं सच्चाइयों में से एक यह भी है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छा और पसंद को ही सर्वोपरि मानता है। वह वही देखता है जो वह देखना चाहता है, वही सुनता है जो उसके मन को भाता है और वही स्वीकार करता है जो उसकी सोच और सुविधा से मेल खाता है।
यह मानवीय स्वभाव का स्वाभाविक पक्ष है, परंतु इसके गहरे असर समाज और रिश्तों में स्पष्ट दिखाई देते हैं। जब इंसान केवल अपने दृष्टिकोण तक ही सीमित रहता है, तो सत्य का सम्पूर्ण स्वरूप उसके सामने नहीं आ पाता। यही कारण है कि कई बार वास्तविकता होते हुए भी अनदेखी कर दी जाती है, और गहरे रिश्ते होते हुए भी उपेक्षित रह जाते हैं।
मानव जीवन की यह प्रवृत्ति धीरे-धीरे आत्मकेन्द्रिकता को जन्म देती है। जब “मैं” का भाव अत्यधिक हावी हो जाता है, तो रिश्तों की बुनियाद कमजोर पड़ जाती है। परिवार, समाज और मित्रता की डोर तभी मज़बूत रहती है जब उसमें “हम” का भाव मौजूद हो। लेकिन जैसे ही व्यक्ति अपनी इच्छाओं को ही अंतिम सत्य मान लेता है, वैचारिक असंतुलन और भावनात्मक दूरी पनपने लगती है।
वास्तविक समझदारी इसी में है कि हम अपनी पसंद और इच्छाओं को महत्व दें, परंतु साथ ही दूसरों की भावनाओं और आवश्यकताओं को भी जगह दें। यदि हम केवल अपने लिए जिएँगे तो जीवन अधूरा रह जाएगा, लेकिन जब हम दूसरों की दृष्टि और संवेदनाओं को भी आत्मसात करेंगे, तभी जीवन सार्थक होगा।
समाज की सच्ची प्रगति और मानवीय रिश्तों की वास्तविक मजबूती इस बात में निहित है कि हम “मैं” से आगे बढ़कर “हम” को स्वीकार करें।
क्योंकि जीवन की परिपक्वता वहीं है, जहाँ स्वार्थ की सीमाएँ टूटती हैं और साझा भावनाएँ रिश्तों को पूर्णता देती हैं।
— डॉ. फौज़िया नसीम शाद