साझेदारी और सांठगांठ
भारत और अमेरिका
दो लोकतंत्र,
दो बड़े मंच,
कैमरों के सामने गले मिलते,
लोकतंत्र का नारा गाते।
भारत कहता है
हम रणनीतिक साझेदार हैं।
अमेरिका जवाब देता है
पहले बाज़ार खोलो,
पहले सौदे दिखाओ।
टैरिफ की खींचतान,
वीज़ा की पाबंदियाँ,
हथियारों की लंबी सूचियाँ
यही असली दोस्ती की भाषा है।
ट्रम्प लौटते हैं,
तो रिश्ते अचानक डगमगाते हैं।
पच्चीस बरस की मेहनत
कुछ ट्वीटों में बिखर जाती है।
लोकतंत्र का ढोल
बस अख़बार की
सुर्खियों में रह जाता है।
और इसी बीच
पाकिस्तान के दरवाज़े पर
अमेरिका की थैली पहुँच जाती है।
डॉलर, हथियार, मदद
सब उसी मुल्क के लिए
जहाँ से निकलते हैं
बारूद और घुसपैठिये।
अमेरिका जानता है,
फिर भी आँखें मूँद लेता है।
क्योंकि पाकिस्तान
उसकी बिसात का मोहरा है
कभी दोस्त, कभी निगरानी में रखा मुल्क,
पर हमेशा ज़रूरी।
भारत को सुनाई देती है
लोकतंत्र और साझेदारी की बातें,
पर पाकिस्तान को मिलती है
मदद और सहूलियत।
यह है अमेरिका की राजनीति
जहाँ दोस्ती का मापदंड
नफ़ा-नुक़सान से तय होता है,
और साझेदारी का सच
सांठगांठ के अंधेरे में खो जाता है।
भारत देखता है
दोहरी चाल का खेल,
पर मजबूर है
क्योंकि दुनिया का
सबसे बड़ा लोकतंत्र भी
कभी-कभी बाज़ार और
रणनीति का कैदी बन जाता है।