दर्द बेजुबान
आँखो में ठहरा दर्द भी कुछ कहता है
औऱ उलझन न बढ़े इसलिये चुप रहता है
ज़िन्दगी सिमट रही है अब बहाने मे
सफर भी लगता है जैसे हो कैद खाने में,,,,,,,
पास रहकर खुदी के भी ,न हम समझ पाए
खामोश रातों की स्याही क्यों न लिख पाए
गिनतियाँ होती रही मेरी तो बेगाने में
सफर भी लगता है ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
हर साँस पर अहसास है घुटता मेरा दम
किस किस के न जाने सहे हमने सितम
रखी है मौत की गठरी मेरे सिराहने में
सफर भी लगता है जैसे हो ,,,,,,,,,,,,,,,,,,
नही ये शौक की झीलों पे शिकारा मेरा
न ही चाँद से भी रौशन हो बसेरा मेरा
दिए कि रौशनी भी लग गए बुझाने में
सफर भी लगता है जैसे ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
कितनी थी मोहब्बत क्यों न जान सके
प्यार आँखो में भरी क्यों न पहचान सके
सनम ताउम्र रहे मुझको आजमाने में
सफर भी लगता है जैसे ,,,,,,,,,,,,,,,,,
बोझ जिम्मेदारियों का कहाँ मुश्किल है
पेट पलता है वहाँ भी जहाँ पर मुफ़लिस है
मिटेगी मुफलिसी मेहनत को आजमाने मे
सफर भी लगता है जैसे ,,,,,,,,,
जजीरे बेनिशाँ पर याद कहाँ मिटती है
चोट कोई भी दिल मे घाव कहाँ दिखती है
बाकी रहती है कशिश शाहा इसी जमाने मे
सफर भी लगता है ,,,,,,,,,,,,,
विनीता शाहा