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21 Aug 2025 · 1 min read

ग़ज़ल

चलता गया मैं पाँव का छाला नही गया ,
काँटा चुभा था मुझसे निकाला नही गया।

कातिल सजा सुनाता बेगुनाह को यहाँ,
मुद्दे को सलीके से उछाला नही गया ।

सूरज की तरह ढ़ल गया जो शख़्स जहां से,
सदियों रहा चमकता उजाला नही गया ।

है सिलसिला रक़ाबतों का सबके दरमियाँ,
गिरता गया शऊर सँभाला नही गया I

भरता रहा जो पेट काट करके सभी का ,
मुँह में उसी के आज निवाला नही गया ।

मुझसे ख़ता हुई मेरा ईमान जब झुका ।
बरबादियों के नुक़्स को टाला नही गया ।

इस बात का तो फ़ख्र महज़ है मुझे अभी ,
ख़ुद को किसी के रंग में ढ़ाला नही गया ।

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