ग़ज़ल
चलता गया मैं पाँव का छाला नही गया ,
काँटा चुभा था मुझसे निकाला नही गया।
कातिल सजा सुनाता बेगुनाह को यहाँ,
मुद्दे को सलीके से उछाला नही गया ।
सूरज की तरह ढ़ल गया जो शख़्स जहां से,
सदियों रहा चमकता उजाला नही गया ।
है सिलसिला रक़ाबतों का सबके दरमियाँ,
गिरता गया शऊर सँभाला नही गया I
भरता रहा जो पेट काट करके सभी का ,
मुँह में उसी के आज निवाला नही गया ।
मुझसे ख़ता हुई मेरा ईमान जब झुका ।
बरबादियों के नुक़्स को टाला नही गया ।
इस बात का तो फ़ख्र महज़ है मुझे अभी ,
ख़ुद को किसी के रंग में ढ़ाला नही गया ।