दृष्टा बनें
तीन तरह के लोग है, कहते चतुर सुजान।
दृश्य मिलें दर्शक अधिक,दृष्टा न्यून बखान।।
दृश्य दिखाना चाहते, करते यत्न अनेक।
बार बार आगे चलें,चाल न जानें एक।।
दृश्य स्वयं को थापने, भूले निज पहचान।
कौन कहां से आगमन, रहे नहीं खुद जान।।
दृश्य स्वयं को चाहते, देखें सारे लोग।
ताकत पूरी वे करें,रच रच योग कुयोग।।
दूजे दर्शक मानते, देखें में आनन्द।
नकली पुतले देख कर,खुश होते ज्यों चंद।।
फिल्मी दर्शक की तरह,इकटक देखें चित्र।
बेसुध होकर देखते, नहीं स्वयं के मित्र।।
कौन सही अरु गलत है, पडे न इनको फर्क।
दृश्य जगत में खो गये, जीवन बेड़ा गर्क।।
तीजे दृष्टा बहुत कम, समझें जो निज काम।
धर्म कर्म का अनुसरण, नहीं चाहते नाम।।
दृश्य भावना से बचें, दर्शक त्याग लगाव।
ईश नाम आराधना,मन संतोष स्वभाव।।
दृश्य स्वयं को मानकर, खुद दर्शक ही मान।
बाहर भीतर साधते, दृष्टा की पहचान।।
दृष्टा ही सर्वोपरी,समझे जीवन अर्थ।
देव रूप ही जानिए,जन्म गया नहि व्यर्थ।।
राजेश कौरव सुमित्र