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10 Jul 2025 · 3 min read

कड़वे सच, मीठे भ्रम की दुनिया में

आज का समाज झूठ की मिठास में इतना लिप्त हो चुका है कि सच्चाई उसे कड़वी लगने लगी है। हम प्रतीकों के पीछे भागते हैं, सार को भूलते जा रहे हैं। धर्मग्रंथों को सर पर रखते हैं, पर उनके सिद्धांतों को जीवन में नहीं उतारते। इस लेख में हम उन विरोधाभासों की पड़ताल करेंगे, जो हमारी सोच, जीवनशैली और समाज की आत्मा को धीरे-धीरे खोखला कर रहे हैं।

1. शब्दों की पूजा, अर्थ की उपेक्षा: हम एक ऐसे दौर में हैं जहाँ पवित्रता सिर्फ किताबों में है, आचरण में नहीं। गीता और कुरान एक अलमारी में साथ-साथ रखी जा सकती हैं-बिना झगड़े के, बिना टकराव के, लेकिन इन ग्रंथों के अनुयायी, जो स्वयं को इनका रक्षक कहते हैं, अक्सर एक-दूसरे की गर्दनें काटने पर आमादा हो जाते हैं। क्योंकि इन ग्रंथों को समझा नहीं गया, सिर्फ लहराया गया है। उपदेशों को जीवन में अपनाने की बजाय हमने उन्हें धार्मिक साज-सज्जा का हिस्सा बना दिया है।

2. सच का संघर्ष और झूठ की सुविधा: सच्चाई, ईमानदारी और मेहनत… ये दूध की तरह हैं। हर दरवाज़े जाकर खुद को साबित करना पड़ता है। लोग सवाल करते हैं, कहीं पानी तो नहीं मिलाया…जबकि बुराई शराब बनकर खुद बिकने निकल पड़ती है। खरीदारों की लाइन अपने आप लग जाती है। विडंबना देखिए-शराब में लोग खुद पानी मिलाकर पीते हैं,
पर दूध बेचने वाले से सौ फ़ीसदी शुद्धता की उम्मीद करते हैं।

3. जो दिखता है, वही बिकता है: एक कील दीवार में पूरी ज़िंदगी बोझ उठाती है, पर तारीफ उस तस्वीर की होती है जो उस पर टंगी होती है। हमारी सोच अब इस हद तक गिर चुकी है कि काम करने वाला गुमनाम रह जाता है और दिखने वाला महान बन जाता है।

4. कीमत नहीं, स्थान मायने रखता है: पाज़ेब और जूती हजारों में बिकती हैं, लेकिन उनका स्थान पैर में ही रहता है। दूसरी ओर, बिंदी कुछ पैसों में मिलती है, पर माथे पर सजती है। यह सीधी सीख है। मूल्य वस्तु से नहीं, उसके स्थान और कार्य से तय होता है।

5. नमक में कीड़े नहीं पड़ते: आज की दुनिया में मीठी बातें करने वाला चापलूस कहलाता है और सच कहने वाला कड़वा। सत्य यह है- मिठाइयाँ जल्दी सड़ जाती हैं, पर नमक टिकता है। जिनमें सच्चाई की कसैलापन है, वही टिकाऊ हैं। बाक़ी सब क्षणिक आकर्षण हैं।

6. शेर कहो, पर जानवर नहीं: इंसान को ‘जानवर’ कह दो तो बुरा मानता है, लेकिन ‘शेर’ कह दो तो मुस्कुरा देता है। सोचिए-दोनों जानवर ही हैं, फर्क सिर्फ लेबल का है। हमारी भावनाएँ अब तथ्यों से नहीं, दिखावे और टैग से नियंत्रित होती हैं।

7. मोमबत्ती और अंधेरे की विडंबना: हम मरे हुए को मोमबत्ती जलाकर याद करते हैं, और ज़िंदा का जन्मदिन मोमबत्ती बुझाकर मनाते हैं। एक ही चीज़-रोशनी कभी शोक की प्रतीक, कभी उत्सव की। हमने अर्थों को उल्टा जीना शुरू कर दिया है। हमारे प्रतीक ही हमारी सोच के मालिक बन चुके हैं।

8. हथौड़े की अनदेखी, फ्रेम की पूजा: जो इमारतें बनाते हैं-हथौड़े और कीलें, उन्हें हम देखना नहीं चाहते। दीवारों पर टंगी तस्वीरों की पूजा करते हैं। हमें चकाचौंध चाहिए, पर भीतर की रोशनी से डर लगता है।

अब समय है चुनने का, अब वक्त आ गया है कि हम इन विरोधाभासों को पहचानें, दिखावे से सच्चाई की ओर लौटें। ग्रंथों को सिर्फ सर पर रखने से कुछ नहीं होगा। उन्हें समझकर जीवन में उतारना होगा। बातों में कृत्रिम मिठास से ज़्यादा ज़रूरी है किरदार में सच्चाई और नमक का होना। क्योंकि जो कड़वा लगता है, वही अक्सर जीवन को असली स्वाद देता है।

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