राधा का अंतर संवाद खंड काव्य
खंडकाव्य का प्रथम सर्ग—“प्रस्तावना सर्ग: राधा का अंतरसंवाद”
संरचना प्रस्ताव (प्रारंभिक रूप):
1. प्रस्तावना: राधा की अंतर्यात्रा—प्रेम से वैराग्य की ओर।
2. स्मृति-सर्ग: बाललीला और रास के स्मरण।
3. विरह-सर्ग: विरह का उत्कट क्षण और प्रश्न-प्रवाह।
4. संवाद-सर्ग: राधा और कृष्ण के मध्य गूढ़ वार्ता।
5. बोध-सर्ग: तत्त्व की प्रतीति—वैराग्य नहीं, पूर्ण प्रेम।
6. समर्पण-सर्ग: राधा का आत्मार्पण, कृष्ण का स्वीकार।
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🌸 प्रस्तावना सर्ग 🌸
1
जन्म-मरण की सीमा पर अब, प्रश्न नहीं कोई।
काया-छाया सब भ्रम मेरा, सत्य बने तू ही।।
मन के सारे भाव बंधन, तेरे राग-विराग।
मोह कहो क्यों इस तन से जब, राधा मन वैराग।।
2
पीत वसन की लहरों में भी, रोष कहाँ अनुराग।
तेरे नाम में डूब गया, सारा स्वप्न-विलास।।
तेरी लीला दृष्टि बनी जब, सब कुछ हो निष्काम।
भाव भरे इस मन के भीतर, तुझसे ही अविराम।।
3
कभी कहाँ संतुष्ट हुआ तू, राधा करे जो त्याग।
फिर भी तेरे मन में रहता, मम प्रियतम का भाग।।
हँसी-भरे उलाहे तेरे, अब भी प्रिय संवाद।
रूप तेरा देह न होकर, आत्मा का स्वाद।।
4
वंशी छूटे, रास रुके पर, न रुके यह प्रणय।
तेरे मौन का अर्थ बनकर, मेरे भाव कहें।।
जो न कहे तू, वह भी सुनती हूँ संपूर्ण रूप।
राधा बनकर अब जीती हूँ, तेरे नाम अनूप।।
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द्वितीय सर्ग: बाल-स्मृति,
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🌼 द्वितीय सर्ग: बाल-स्मृति 🌼
1
यमुना तट की रेत सजी थी, पग चिन्हों के साथ।
बाँसुरिया की तान लगी जब, हँसी उड़े प्रभात।।
कंचन सवेरे लहर लहरते, माखन जैसी धूप।
राधा संग वृंदावन को, कृष्ण बाँटे रूप।।
2
कदम्ब तले छाँव सी बैठी, अल्हड़ राधा राग।
कृष्ण ढूँढते मुस्कानों में, रचते नित अनुराग।।
बाल अधर पर रेख तिरछी, मुरली बँधी उभार।
तब से मन की रेखाएँ बस, तुझसे ही साकार।।
3
खेल-खिलौने नाम बने जब, तेरे हर उपनाम।
श्याम कभी तो छलिया कह दूँ, कभी करूँ प्रणाम।।
मिट्टी की कुंभों में बाँधूँ, प्रीत-घट अनजान।
तबसे हर संवाद बना है, तुझमें ही पहचान।।
4
गुंजे बांसुरी कानों में, अब भी वही तान।
रेत बहे पर स्मृति ठहरी, जैसे शाश्वत गान।।
बालकृष्ण की चंचल छाया, अब भी ले मुस्कान।
राधा की हर साँस बँधी है, तेरे नयन प्रमाण।।
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🌑 तृतीय सर्ग: विरह-सर्ग
1
चाँदनी रातें श्वेत हुईं पर, मन में ताप भरे।
तेरे बिना समय ठहरता, जैसे मौन ढहे।।
खग बोले, मृग दृष्टि चुराए, फूलों में संकोच।
तू जो नहीं दृश्य में मेरे, ध्वस्त हुआ सब सोच।।
2
रजनीगंधा बोल न पाए, मेरी व्यथा-राग।
जैसे हर सुर रुक सा जाता, तेरे बिना अनुराग।।
तेरे स्पर्श बिना यह जीवन, शुष्क नदी की धार।
जिसमें बहते केवल काँटे, सूनी हर पुकार।।
3
नयन बुझे, पर निंदिया आती, स्वप्न भी हुए मौन।
तेरी छाया तक बिछुड़ गई, साँसों पर भी पौन।।
यमुना की लहरें भी मुझसे, करती अब संवाद।
“कहाँ गया वह जो था तुझमें? राधा क्यों उन्माद?”।।
4
अब तो बसा तुझमें ही मेरा, धैर्य, करुण, संकल्प।
पग-पग पर तेरे नामों का, लेती हूँ मैं जाप।।
विरह नहीं है अब पीड़ा, यह तो एक प्रसाद।
तू ही दुःख, तू ही है सुख भी, तू ही मेरा व्रतवाद।।
4
रजनी बहे जुगनू लिए, पर मन में अंधकार।
कानों में वो बाँसुरी अब, रूठी-सी संवाद।।
छाया श्यामस्मरण की घटा, फिर भी रिक्त नयन।
कृष्ण कहाँ तू, यह तू ही तो, पूछे हर स्पंदन।।
5
रास बिन जीवन अधूरा, रंग बिनोहर राग।
जग की सारी लीला फीकी, जब तू दूर अभाग।।
वृंदा भी अब मौन हुई है, पग पथ देखे शून्य।
मन की मुरली खोज रही है, एक मधुर प्रतिबिंब।।
6
तेरे कण-कण में समाया, फिर भी तू अदृश्य।
जो दिखे वह तू नहीं, जो न दिखे वह शिष्य।।
धूप तेरी, छाया तेरी, पग तेरे संकेत।
फिर भी राधा व्याकुल पूछे—किस रूप में तू हेत?
7
प्रेम नहीं अब क्षोभ बना है, विरह नहीं है शूल।
यह तो तेरे नाम-जपों में, शुद्ध हुआ समूल।।
तू ही अब प्रतिवास बना है, स्वर, श्वासों का नाद।
तेरे नाम में जपती हूँ, राधा मन वैराग।।
क्रमशः