मेरी हो
जब सब कुछ शांत होता है, बाहर की दुनिया, कमरे की दीवारें, रात की चुप्पी—
तब मस्तिष्क के भीतर एक शोर उठता है, यह कोई साधारण शोर नहीं, यह उस दर्द की चीख़ है जिसे दबाया गया, जिसे जताया नहीं गया, जिसे शब्द नहीं मिले, यही वो पल होता है जब तुम्हारी याद, बिना किसी दस्तक के, भीतर उतर आती है, तुम, जो अब मेरे पास नहीं हो, लेकिन मुझसे कभी अलग भी नहीं हुईं….
तुम्हें भुला देना आसान था, अगर तुम सिर्फ़ याद होती तो शायद भुला देता तुम्हें….
लेकिन तुम तो मेरी चेतना का हिस्सा बन चुकी हो—
एक ऐसी उपस्थिति जो हर सोच के साथ बहती है, हर नींद में दस्तक देती है, और हर जागती आँखों को तुम्हारा चेहरा दिखा जाती है….
तुम्हारी अनुपस्थिति अब खालीपन नहीं, बल्कि एक स्थायी अहसास है, मस्तिष्क के भीतर जब भावनाएँ तूफान बनकर उठती हैं, तब तुम्हारा नाम, तुम्हारी आवाज़, तुम्हारा मौन—
सब कुछ एक साथ उमड़ पड़ता है….
जैसे तुमने मेरे भीतर कोई जड़ जमा ली हो, और अब मैं स्वयं को खो कर भी बस तुम्हें जी रहा हूँ, कभी सोचता हूँ, क्या तुमने भी यही महसूस किया होगा ?
क्या तुम्हारे भीतर भी कोई आवाज़ उठती होगी, जो मेरा नाम लेती होगी ?
शायद नही,….
या शायद तुम भी मेरी तरह ही सब कुछ अपने भीतर दबा कर जी रही थी., बस बिना शोर के….
तुम्हारी याद कोई मधुर कविता नहीं है, यह तो एक प्रेम संगीत है जो हर रोज़ बजता है, हर साँस के साथ….
और मैं…
मैं हर बार उस संगीत में खुद को खो देता हूँ, क्योंकि वह मेरी पहचान बन गया है, मैं जानता हूँ, समय के साथ बहुत कुछ बदल जाता है— लोग, रिश्ते, उम्मीदें—
लेकिन कुछ गहराइयाँ ऐसी होती हैं जिनमें एक बार कोई उतर जाए, तो फिर कोई और वहाँ जगह नहीं ले सकता…कभी भी नहीं…
तुम मेरे भीतर घुल गई हो, पूर्ण जटिलता से, जैसे धीरे-धीरे नसों में फैल गई हो….
तुम सिर्फ एक स्मृति नहीं, मेरे जीने की वजह भी हो…
मेरे जीने का सुकून भी हो…