आज का दौर
देखो कितनी सुख सुविधाएँ,
जनसंख्या ज्यों मेला है।
सभा सजी सब जगह मगर क्यों,
मानव खड़ा अकेला है।
बाहर शोर विविध शैली के,
अन्दर से बिल्कुल सूना।
रिश्ते घिसते दिन दिन प्रतिदिन,
नीरसता बाढ़े दूना।
सब व्यापार के जैसा बन गया,
रिश्ता नाता आदर प्यार।
कोई किसी का रहा न दिल से,
अब तो सब मतलब के यार।
गणित सब जगह लागू हो गयी,
लाभ हानि की होती बात।
न अब दिल में रही मुहब्बत,
न कोई शेष बचे जज्बात।
दिल का हुजरा इतना सिकुड़ा,
ज्यादा नहीं समा पाये।
स्वयं,लुगाई,दो ठू बच्चे,
बस इतना ही आ पाये।
भ्रात मौसेरे मामा फूफू,
बन गये अब तो बिल्कुल गैर।
आपस में जाहिरी तौर पर,
जबकि नहीं है कोई बैर।
जब से हुआ इजात जगत में,
चलता फिरता छोटा फोन।
आज सभी कहते हैं खुद से,
बुल्ला की जाणा मैं कौन?
गांव में शेष रह गये थोड़े,
कुछ ही बूढ़े से इंसान।
सबका रुख है नगर और को,
सबके खाली पड़े मकान।
माता पिता निरीह हो गये।
रोग दवा घर में है शेष।
आँखें रोज निहारें रस्ता,
बेटा जाकर बसा विदेश।
अपना डफली राग है अपना,
बाकी सब लगता बेकार।
सामाजिक संचार का युग है,
मरघट तक दिखते गुलजार।
फोन ऑन तो अजब शान है
बाकी बातें लगे फिजूल।
यह सब देख ‘सृजन’ हो जाता,
हृदय मेरा बहुत मलूल।