मैं जिसे वक्त समझ कर जीता रहा,
मैं जिसे वक्त समझ कर जीता रहा,
वो ही हर लम्हा मुझसे बचता रहा।
जिसके आँगन में ख्वाब बोए थे,
वो ही हर ख़्वाब को कुचलता रहा।
मैंने दिल की सभी चुप्पियाँ दे दीं,
वो मेरी आवाज़ से डरता रहा।
मैंने खुद को भी हार कर देखा,
वो मगर जीत पे ही मरता रहा।
~ करन केसरा ~