रूस-यूक्रेन युद्ध; नाटो की रणनीति या मानवता की त्रासदी?: अभिलेश श्रीभारती
“देखना नाटो, नाक कटवाएगा…”— यह सिर्फ एक चेतावनी नहीं, बल्कि वैश्विक राजनीतिक संतुलन पर छाया एक काला साया है। रूस और यूक्रेन के युद्ध की जड़ें जितनी सतही लगती हैं, हकीकत उतनी ही गहरी और राजनीतिक तौर पर विषैली हैं। और इस पूरे द्वंद्व का मौन सूत्रधार यदि कोई है, तो वह है — नाटो।
1949 में जब अमेरिका ने नाटो (North Atlantic Treaty Organization) की स्थापना की, तब उद्देश्य घोषित रूप से साम्यवादी रूस की ताक़त को संतुलित करना था। लेकिन समय के साथ यह गठबंधन एक ऐसे हथियारबंद राजनीतिक मंच में बदल गया जिसने रूस की सीमाओं तक धीरे-धीरे विस्तार कर उसे घेरने की नीति अपनाई। यूक्रेन को नाटो में शामिल करने की मंशा ने रूस के सुरक्षा तंत्र को हिला दिया और अंततः वह युद्ध के रास्ते पर उतर आया।
यूक्रेन के बहाने अमेरिका ने रूस को एक लंबे संघर्ष में उलझाने का ताना-बाना बुना है। इतिहास गवाह है कि अमेरिका ने कभी रूस से सीधे युद्ध नहीं लड़ा, लेकिन उसने अफगानिस्तान से लेकर सीरिया तक हर उस मोर्चे पर रूस को घेरने की रणनीति अपनाई, जहाँ वह खुलकर सामने न आकर सिर्फ मोहरे चल सके। अमेरिका के लिए यह युद्ध सिर्फ एक जियोपॉलिटिकल शतरंज है, लेकिन रूस के लिए यह अस्तित्व का प्रश्न बन चुका है।
हाल ही में रूस के एयरबेस पर यूक्रेनी ड्रोन हमले ने जो संकेत दिए हैं, वे किसी तात्कालिक सैन्य सफलता से कहीं आगे विश्वयुद्ध तृतीय की धमक लिए हुए हैं। मैंने विश्व युद्ध को लेकर अपने कई सारे लेखों में चिंता जाहिर करते हुए कहा है यह स्थिति सीधे-सीधे विश्व युद्ध तृतीय की शुरुआत मानी जा सकती है। और तब यह लड़ाई सिर्फ हथियारों की नहीं, अस्तित्व की होगी। रूस को अब स्पष्ट दिख रहा है कि यूक्रेन के पीछे नाटो की लंबी छाया है। यदि रूस पलटवार करता है, जैसा कि स्वाभाविक है, तो यह सिर्फ यूक्रेन तक सीमित नहीं रहेगा। नाटो अनुच्छेद-5 के तहत यदि किसी सदस्य देश पर हमला होता है, तो सभी सदस्य साथ आते हैं। रूस अब नाटो के भागीदारों को भी निशाने पर ले सकता है।
इस बढ़ते संघर्ष में यूरोप एक तरह से घोषित युद्धक्षेत्र में बदलता जा रहा है। फ्रांस, जर्मनी जैसे देश जो पहले रूस से संतुलन बना रहे थे, अब अमेरिकी नीति के दबाव में अपनी स्वतन्त्रता खोते जा रहे हैं।
ऐसे में भारत की विदेश नीति की परीक्षा है। “वेट एंड वॉच” की नीति अब अधिक देर तक कारगर नहीं रहेगी। भारत को स्पष्ट रुख अपनाना होगा — क्या वह बहुपक्षीय संवाद के पक्ष में ठोस कदम उठाएगा या तटस्थ रहकर विश्व के नए शक्ति-संतुलन को चुपचाप देखता रहेगा?
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने युद्ध को लेकर जितने वादे किए, उतने ही खोखले साबित हुए। उन्होंने टैरिफ और व्यापार को युद्ध का माध्यम बनाया, मानो यह अंतरराष्ट्रीय राजनीति नहीं, बल्कि कोई शेयर मार्केट का खेल हो। इस नीति का लाभ अमेरिका को भले मिला हो, लेकिन विश्व को अस्थिरता और भय ही मिला है। मैंने मैंने बड़बोले ट्रंप चच्चा के चुनाव जीतने पर यह आशा जताई थी कि भारत और विश्व में शांति और विकास की एक नई बदलाव को एकजुटता प्रयास मिलेगा लेकिन आज मुझे यह आभास हो रहा है कि शायद मैं गलत था। पता नहीं डोनाल्ड चच्चा आजकल कौन से भांग के नाश करने लगे हैं।
अब सबकी निगाहें रूस की अगली प्रतिक्रिया पर हैं। यदि रूस ने यूरोप में नाटो हितों को चोट पहुँचाई, तो यह युद्ध वैश्विक बन सकता है। और तब कोई भी देश, चाहे वह अमेरिका हो या भारत, तटस्थ नहीं रह पाएगा।
नाटो ने जिस रणनीति से यूक्रेन को एक मोहरा बनाया है, वह अब पूरे विश्व को दांव पर लगा चुकी है। यह समय है जब दुनिया को अमेरिका और रूस दोनों के राजनीतिक दंभ से बाहर आकर एक नए विश्वशांति मॉडल की ओर बढ़ना चाहिए।
क्योंकि यदि यह युद्ध बढ़ा, तो सवाल यह नहीं रह जाएगा कि कौन जीतेगा — सवाल यह होगा कि कौन बचेगा?
नोट: यह लेखक के अपने निजी विचार है!
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✍️आलेख✍️
अभिलेश श्रीभारती
सामाजिक शोधकर्ता, विश्लेषक, लेखक